Friday, February 15, 2013

कविता - बाजार


||श्री ||                                                                      -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
कविता - | |  बाजार ||
-------------------------------------------------
बाजारात गेलो मी देखण्या |, चक चकाट कसला होता ..|
घेउनी गेलो  पैसे मी खरे |, माल तिथला फसवा होता ...||
माणसांची गर्दी तुडुंब ती ,| पैश्यांचा खण खणात  होता .|
बेगडी सारे चमकते ते ,| मुखवटयांचा  ताटवा  होता ....||
डोळे भिरभिरते सगळे ,| पाहण्यारांना सोस होता ..........|
विकण्यासाठी काय नव्हते ?| ,जो-तो  चमचमता काजवा होता..||
भावना घेउनी मनातल्या ,| कुणी आलाच चुकून येथे ...|
कवडीची ना किमत त्याला |, दलालांचा तो कालवा होता ..||
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
कविता  ||- बाजार ||                                                             -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.

No comments:

Post a Comment