Sunday, June 24, 2012

कविता - संशय ..!

कविता - संशय ..! -अरुण वि देशपांडे -पुणे

by Arun V. Deshpande on Saturday, June 23, 2012 at 9:21am ·
कविता - संशय ..!                                               -अरुण वि देशपांडे -पुणे
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 मनात  नसावी
 जागा -संशयास ,
 प्रवेश कधीही
 याला  देऊ नका  ......!
 शत्रू  कोणताही
 वाईट  नेहमी
 परी विध्वंसक
 सगळ्यात हा ........!
 सुखात कालवी
 विष हा नेहमी    
 कोणत्या रुपात 
 भेटे भरोसा नाही......!   
 मनांचा विस्वास
 हाच असे खास
 या आधारे हो
 संशय दूर ठेवा ........!    
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  कविता - संशय ..!                                               -अरुण वि देशपांडे -पुणे
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कविता- संकल्प - समर्थ चरणापाशी ...! ||

कविता- संकल्प - समर्थ  चरणापाशी ...! ||                                                     अरुण वि.  देशपांडे  -पुणे                           
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दिवस एक  छान उजाडला
संकल्प मनाशी हो  योजिला
वंदन करुनी स्वामी समर्था
आरम्भ करूया वागण्याला........!||1 ||
दुखावतील कुणी बोलण्याने 
टोकदार  बोलायचे नाही
जिव्हारी लागेल कुणाच्या ते
झोंबणारे बोलयाचे नाही ........! || 2||
मनाच्या ओढीने यावीत हो
माणसे आपली म्हणवणारी
आपुलकी याच साऱ्यांची हो
 उमेद जगण्यास देणारी  ..........! || 3||
अडचणीत सापडता कुणी
मदतीस जावे त्याच्या सदा
हात करावे पुढती त्याच्या
संकटातूनी  बाहेर काढण्या ........!||4||
नित्य प्रार्थना करु आपण सारे
समर्थ चरणांपाशी हो
द्यावी सद्विवेकबुद्धी आम्हालागी
विचार आणि आमच्या आचरणाला ....!||5||

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कविता- संकल्प - समर्थ  चरणापाशी ...! ||                                             अरुण वि.  देशपांडे  -पुणे
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कविता- "मन आतुरले रे ..!

कविता- "मन आतुरले रे ..!                                                                       -अरुण वि .देशपांडे -पुणे
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रिमझिम रिमझिम सावन आला रे सखया
ये लवकरी, मन आतुरले रे तुज भेटाया ...|| धृ ||
विरहाचे दिवस संपले कसे आपले
आठवणी त्याच्या आता काढू नको या
 त्या एकल्या रात्री आता रे संपल्या
ये लवकरी, मन आतुरले रे तुज भेटाया ......||१||
सरले एकदाचे रे  क्षण दुराव्याचे
मनी रंग भरले रे गोड  मीलनाचे
ओढ जाणुनी मनाची माझ्या सखया
ये लवकरी, मन आतुरले तुज भेटाया ..........||२||
सहवासे  अधिक रंगते प्रीती मनांची
विरहाने वाढते खरी खुमारी प्रेमाची
जाणुनी घेऊ आपण दोघे अर्थ  सखया
ये लवकरी ,मन आतुरले रे तुज भेटाया .......||३ ||
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कविता- " मन आतुरले रे.......!                                                    -अरुण वि. देशपांडे -पुणे.
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Rimzim Rimzim

कविता - पाउस

कविता - पाउस                                                             -अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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कोसळावे कधी
भरले आभाळ
आतुरले सारे
उजाडलेले माळ..||
नाही भरवसा
लहरी पावसाचा
जीवनात नाही
जीवन याच्या मुळे..||
मेहेरबानी याची
नाही सगळीकडे
कुठे पूर- महापूर
दैना ती याच्यामुळे ....||
असले असेही
पाउस हवाच हो
आबादानी सारी
या    पावसामुळे .........||
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कविता -पाउस                                                        -अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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Paus.."

कविता- फादर्स डे...!

कविता- फादर्स डे...!                                                                   -अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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आई आणि बाबा
आई आवडे की
आवडती बाबा ?
का विचारता बाबा ?.........!
प्रेम माया सारे
म्हणजे ही आई,
आधार दिलासा
हे म्हणजे बाबा ...............!
आजी आणि आबा
आई आणि  बाबा
सगळे असले
तर घर बाबा ...................!
बाबा बाबा -बाबा
थोड तरी थांबा
आज आहे "बाबा-डे "
केक घ्याहो बाबा ..............!
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कविता - फादर्स डे "...!                                                   -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.

लेख- आठवणीत हरवणे ...|

|| श्री ||                                                                                     अरुण वि. देशपांडे -पुणे.
लेख- आठवणीत हरवणे ...|
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तुम्हा -आम्हा सर्वांच्या मनात आठवणीच -आठवणी साठ्लेया असतात .
"व्यक्ती तितक्या प्रकृती "- तसे आठवणींचे असते. कुणाच्या आठवणीत
काय असेल ? सांगता येत नाही.
"आठवणीत  हरवून जाणे "- हे आपल्या स्वभावातील हळवेपानाचे लक्षण आहे.
कारण आठवणी ह्या बहुतांशी " निकटच्या - आपल्याशा वाटणाऱ्या व्यक्तीशी
निगडीत असतात. त्या अनुषंगाने घडलेले "प्रसंग किंवा घटना " या आपल्या
मनात , स्मृतीपटलावर कायमच्या कोरल्या गेलेल्या असतात. सहाजिकच त्या
क्षणांना आपण कधीच विसरू शकत नाही."
हे पुन्हा पुन्हा आठवणे सुद्धा मनाला एक हळवे समाधान देणारे सुखच आहे."
मनाच्या हुरहुरत्या अवस्थेत "आठवणीत हरवून जाणे" ही हमखास घडणारी एक
मानसिक प्रक्रिया आहे.
"आपण आपल्यातच हरवून जाणे," आजूबाजूच्या दुनियेचा विसर पडून जाणे " असे
हे आठवणीत हरवून गेल्यावर होऊन जाते.
या  आठवणी "कधी डोळ्यांच्या कडा ओलावून टाकणाऱ्या असतात, कधी अस्फुट असे
हुंदके घशाशी आणणाऱ्या असतात." तर "कधी आठवणी मनाला नवी उमेद देतात ",
आठवणी पुन्हा ताज्या झाल्या की "मनाला हुरूप आल्या सारखे वाटून जाते."
"जुन्या जखमा कुरवाळीत बसणे..." म्हणजे "आठवणीत हरवून जाणे " एवढेच नसते.
"सहवासात येऊन  गेलेल्या माणसांना  भरली मनाने आठवणे "-ही सुद्धा आठवणी आहे.
"आपल्या हातून घडून गेलेल्या चुकांपासून बोध घेणे  आणि त्या
  दुरुस्त करण्याचा प्रयत्न करून पाहणे" हे ही घडून जाऊ शकते ते
केवळ "आठवणीच्या पाठबळावर ." कारण त्या घटना , ते घडून घेलेले
 प्रसंग " आपल्याला जीवनानुभव " देऊन गेलेले असतात. ते पुन्हा -पुन्हा
 आठवणे ' आणि मनाला "नव्याने काही शिकण्यास मिळणे ", हे आठवणींचे
आपल्या उपकारच आहेत ", असे म्हणावेसे वाटते.
 "एक- एकट्याचा एकांत - आणि आठवणी" यांचे अतूट असे नाते आहे. दूरवर
 नजर लावून विचारात गढून गेलेले कुणी दिसले के समजावे" आठवणीच्या
आठवणीत हरवून गेलेला दिसतेय स्वारी.'!
      " आठवणीचे ."-हे येणे
        झुल्यावारचे झुलणे
        हिंदोळ्यावर  झुलावे
        मनालागी सुखवावे .......||
 हे लेखन वाचून तुम्ही तुमच्या आठवणीत हरवून जाल हे नक्की .आणि कळवा
मला तसे.नमस्कार ,
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लेख- "आठवणीत हरवणे -                                              -अरुण वि. देशपांडे -पुणे
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कविता - रित- विपरीत

कविता - रित- विपरीत                                                    -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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शब्द हे अवघे
भावनांचे रूप
कठोर मनाला
कशाचे अप्रूप ?.......|
फुटे का पाझर
दगडाला कधी ?
अश्रुंना बंद
डोळ्यांची दार .......!
मधुर बोलणे
बंद झाला छंद
फटकळ बोल
देतात आनंद ........!
मन वेडे भोळे
त्याला हे "ना - कळे
जगण्याची कशी
 रित- विपरीत..!......!

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कविता-- रित- विपरीत  .......!                                     -अरुण वि देशपांडे -पुणे
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तुमचा -आमचा पाउस ||

तुमचा -आमचा पाउस ||                                               -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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क्षितिजा काठी तो दिसता
खिडकीशी मीही  थबकतो
निळ्याशार अंबरी जमल्या
घन निळ्या मित्राना पाहतो ...........||
पावसाच्या दूतांना पाहुनी
या या मित्र हो ,मी विनवितो
घेत नाही मग  आढेवेढे  तो
आणि मनमुराद कोसळतो ............||
मित्र असे मोकळे असावे
आत-बाहेर काही नसावे
देणे पावसापरी जमावे
जीवनी सुख होऊनी यावे .......||
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कविता - तुमचा-आमचा पाउस "                                     -अरुण वि . देशपांडे -पुणे
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कविता - "तुमचा -आमचा पाउस "

कविता - समर्थ प्रिय नाम-जय श्रीराम ||

कविता - समर्थ प्रिय नाम-जय श्रीराम ||

by Arun V. Deshpande on Thursday, June 7, 2012 at 9:58am ·
||श्री ||                                                                                     अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
कविता - समर्थ प्रिय नाम-जय श्रीराम ||
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हे माझे ,ते ही माझे एवढे ,
एवढेच येते मनात काम
बाहेर काढू यातुनी याला
घ्याला लावू याला स्वामी-नाम  ||
संकटात सापडता आम्ही
वाटे जीवनात काय राम ?
बाहेर पडण्यास यातुनी
घ्यावे हो नेहमी स्वामी नाम ......||
घ्यावे निशिदिन स्वमीनाम
त्रस्त जीवास  लाभे आराम
विकारांना दूर सारण्यासी
घ्यावे स्वामी समर्थांचे नाम .......||
रोज दिन-आरंभ करीता
नित्य म्हणवे जय श्रीराम
समर्थांना असे प्रिय हेच
 नाम हे एक  "जय श्रीराम ............||
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अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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कविता - समर्थ प्रिय नाम-जय श्रीराम ||

||श्री स्वामी समर्थ ||

||श्री ||
संकटात  सापडता आम्ही
वाटे जीवनात काय राम ..!
बाहेर पडण्यास यातुनी
घ्यावे हो नेहमी स्वामीनाम ...||
||जय श्री स्वामी समर्थ ||
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-अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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||श्री स्वामी समर्थ ||

फुलबाग-

फुलबाग-

by Arun V. Deshpande on Monday, May 21, 2012 at 7:56pm ·
फुलबाग ..!                                                       -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
मन आतून जेंव्हा बहरून येते
जग हे बाहेरचे मज सुंदर दिसते
मन जेव्हा आतून खुलून येते
फुलबाग जीवनाची  फुलून येते ||
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फुलबाग-                                                       -अरुण वि. देशपांडे -पुणे.
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------------------------------------------------------------------------------------------------------ फुलबाग-

कविता - | | बाजार ||

कविता - | | बाजार ||

by Arun V. Deshpande on Tuesday, May 15, 2012 at 2:44pm ·
||श्री ||                                                                      -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
कविता - | |  बाजार ||
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बाजारात गेलो मी देखण्या |, चक चकाट कसला होता ..|
घेउनी गेलो  पैसे मी खरे |, माल तिथला फसवा होता ...||
माणसांची गर्दी तुडुंब ती ,| पैश्यांचा खण खणात  होता .|
बेगडी सारे चमकते ते ,| मुखवटयांचा  ताटवा  होता ....||
डोळे भिरभिरते सगळे ,| पाहण्यारांना सोस होता ..........|
विकण्यासाठी काय नव्हते ?| ,जो-तो  चमचमता काजवा होता..||
भावना घेउनी मनातल्या ,| कुणी आलाच चुकून येथे ...|
कवडीची ना किमत त्याला |, दलालांचा तो कालवा होता ..||
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कविता  ||- बाजार ||                                                             -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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कविता - | | बाजार ||

कविता - मनामनातील आई"....!

कविता - मनामनातील आई"....!

by Arun V. Deshpande on Sunday, May 13, 2012 at 10:00am ·
||श्री ||                                                                                                 -अरुण.वि . देशपांडे -पुणे.
कविता - मना मनातील आई..!
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जरी माझ्याकडे तिची पाठ आहे
तरी मला ती पूर्ण पाठ आहे
वाकली असेलही सावलीत  ती
कण्याने अजून ताठ आहे......................||
दु:ख मनात कोंडिले
सुख चोहीकडे शिम्पिले
जखमेवरी दिसल्या खपल्या
अंगणात आनंदाचे सडे .......................||
स्वाभिमानी मुठ तिची
कधी उघडी झाली नाही
दारिद्र्याची झुंबरे कधी
घरात टांगली नाही ............................||
उन्हां-तान्हात वाटचाल झाली
काट्यानची  पायाखाली भुई
चांदणसावली दिली तिने
दिल्या ओंजळीत जाईजुई ................||
अप्रूपाची नसे हो कहाणी
घरोघरी असते अशी बाई
डोकावून बघा आत तरी
ही तर मनामानातली आई ..............||
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कविता- || मनामानातली आई ....!||                                                        -अरुण वि देशपांडे -पुणे.
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कविता - मनामनातील आई"....!

कविता- श्री दर्शन ||

||श्री ||                                                                     -अरुण वि .देशपांडे -पुणे
कविता- श्री दर्शन ||
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मनात असे आपल्या
स्थान श्री गुरुतत्वाचे
जावे दर्शना हो त्यांच्या
महत्व जाणुनी स्थानांचे ....||
सद्गुरुंनी कथिले
महात्म्य हो दर्शनाचे
आपणही जावे सदा
दर्शन घेण्या हो त्यांचे .......||
जावे अक्कलकोटी त्या
सज्जनगडा वर त्या ,
वाट चला शेगावाची
वा शिर्डीला जाउनी या ......||
गुरुरूप सकल हे
समर्थ तत्व सारखे
भावेल जे रूप त्यांचे
घ्यावे दर्शन सारखे ..........||
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कविता - "श्री दर्शन "                                                      -अरुण वि .देशपांडे -पुणे
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Shri Sadguru ||

कविता - " हे रसिका "

कविता - " हे रसिका "

by Arun V. Deshpande on Tuesday, May 8, 2012 at 9:23am ·
रसिकजन हो-  नमस्कार , " एक आठवण.....!
आज दि.८ मे , मागच्या वर्षी याच दिवशी
माझ्या "मन डोह" या कविता संग्रह्चे प्रकाशन ,
डा.विकास कशाळकर यांचे हस्ते संपन्न झाले.
त्या निमित्ताने संग्रहातील एक कविता सादर करीत आहे.
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कविता - हे रसिका ...!                                                      -अरुण वि . देशपांडे.-पुणे.
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जखमा उरीच्या साऱ्या
दाखवू कुणास कशा
घालील फुंकर कुणी
ठरली रे वेडीच आशा ....||
मनास जाणेल असा
जिवलग नाही कुणी
ऐकेल आतले असा
भेटलाच नाही कुणी ......||
कैफियत माझी कितीदा
कवितेत मी मांडली
कोरड्या ठप्प जगाने
पाठ की फिरवली .........||
तूच भेटला रसिका
रंगात माझ्या रंगला
घेतला जाउनी अर्थ
अनर्थ दूर ठेविला ........||
सांगितले तुज रसिका
किती हलके वाटले
मन होते भटकले
तेच तू सावरले ...........||
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कविता - " हे रसिका "                                          -अरुण वि.देशपांडे -पुणे
"मन डोह - या कविता संग्रह्तील कविता .
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कविता - " हे रसिका "

लेख - "आईचे महत्व...!

लेख - "आईचे महत्व...!

by Arun V. Deshpande on Monday, May 7, 2012 at 9:26am ·
नमस्कार आणि शुभ प्रभात मित्रानो-
एका  समूहा साठी मी लेख लिहिला ,तो आज तुमच्यासाठी
सादर करतो आहे.
लेख- "आईचे महत्व...!"
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मुलांच्या भावनिक जीवनात "आईचे महत्व" खूप असते.
"आई आणि वडील" यांच्यामध्ये मुलांचे जास्त भावनिक नाते",
हे आईबरोबर जोडलेले असते. जन्मदात्या -आईशी " हे जवळचे
भावबंध स्वाभाविक आणि सहजपनाचे असतात.
"आपल्या मुलांवर प्रेम करावे "- हे कधी कुणा आईला सांगावे लागलेले
आहे का ?
आईचे माया , तिचे प्रेम, आपल्या कुटुंबाविषयी तिला असलेली ओढ आणि
काळजी ", या गोष्टी मुलांनाही कळत असतातच ना.! आईची त्याग-भावना ,
आणि निस्वार्थी -प्रेम भावना " या दोन्ही तर साऱ्या जगाने मान्य केल्या आहेत की.
"जगातील सव भाषा मधून, त्यातील साहित्या मधून आईचे महत्म्य आणि महत्व
अगदी मोठ- मोठ्या लोकांनी मुक्त-कंठाने व्यक्त केलेले आहे " हे ही आपण पाहतो.
आईच्या मनातील उत्कट भावनेमुळे "आईचे प्रेम" मुलांना सतत
जाणवत असते. म्हणूनच एखादे घाबरलेले मुल, भीतीने भेदरलेले मुल.
आईच्या कुशीत शिरले मी "भयमुक्त होते." आईच्या मायेच्या स्पर्शाने
हे बाल स्वतःला सुरक्षित समजत असते.
"स्त्री-पुरुष", "आई आणि बाप", या दोन्ही नाते-स्वरूपात ज्यावेळी
मुलांच्या सुरक्षिततेचा प्रश्न येतो", त्यावेळी , मुलांचा योग्य सांभाळ ,
आणि योग्य संगोपन"- बापापेक्षा "- मुलाची आई जास्त योग्य करू शकते ',
यावर नेहमीच एकमत झालेले आहे.
आईच्या मनातील उत्कट भावनेमुळे "आईचे प्रेम" मुलांना सतत
जाणवत असते. म्हणूनच एखादे घाबरलेले मुल, भीतीने भेदरलेले मुल.
आईच्या कुशीत शिरले मी "भयमुक्त होते." आईच्या मायेच्या स्पर्शाने
हे बाल स्वतःला सुरक्षित समजत असते.
"स्त्री-पुरुष", "आई आणि बाप", या दोन्ही नाते-स्वरूपात ज्यावेळी
मुलांच्या सुरक्षिततेचा प्रश्न येतो", त्यावेळी , मुलांचा योग्य सांभाळ ,
आणि योग्य संगोपन"- बापापेक्षा "- मुलाची आई जास्त योग्य करू शकते ',
यावर नेहमीच एकमत झालेले आहे.
आयुष्याच्या प्रत्येक वळणावरती -मुलांना आपली आईच महत्वाचे वाटत असते.
मनातले सारे काही सांगायचे ते आईला ..!" हे विश्वासाचे नाते आई आणि मुलातील
भाव-बन्ध अधिक बळकट करणारे आहे.
कुटुंबासाठी सतत झटणारी , निस्वार्थी पणे प्रेम करणारी, सर्वांची काळजी घेणारी आई ,
घराला आपले सर्वस्व मानणारी आई, आणि "आईला आपले सर्वस्व मानणारी मुले
आपल्याला भोवताली दिसतातच की...!
हे असे आहे "आईचे महत्व"..!
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लेख - "आईचे महत्व...!                                                                      -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.

कविता - सांगू सखे -काय तुजला ...!

||श्री ||                                                                          -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
कविता - सांगू सखे -काय तुजला ...!
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सांगू सखे काय तुजला मी
हाल माझ्या मनाचे ते कसे
होता नजरा - नजर  तुझी
कळेल , माझे मन ते  कसे ..!         ||
स्वप्नात असतेस तू , अन
सत्यात पाहतो तुजला
अस्तित्व तुझे, जग ते माझे
एवढे आहे ठावे मजला .......!         ||
ओंजळीत आलो घेउनी मी
उमलत्या फुलांचा गजरा
दिसतेस किती सुंदर तू
खुले रंग निळा हा साजरा .......!      ||
म्हणतेस सदाच तू मला
होतसे काय या पाहण्याने ?
जीवन लाभते दरवेळी मला
सखे, तुझ्या एका पाहण्याने ....!      ||
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कविता - सांगू सखे -काय तुजला ...!                                        -अरुण वि . देशपांडे -पुणे
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kavitaa

" हे पटलं तर होय म्हणा ...:

नमस्कार आणि शुभप्रभात मित्रांनो -
 " हे पटलं  तर होय म्हणा ...:
"प्रपंच करावा नेटका " हे संतवचन ध्यानीमनी ठेवून
 घरातील वातावरण समतोल ठेवणारे अनेक कुशल
 कुटुंबवत्सल व्यक्ती आपली सभोवताली असतात.
ते नेमके काय करतात, घरातील" माणसांशी ते नेमके  कसे
वागतात,?" हे प्रश्न आपल्या मनात उत्सुकता निर्माण करतात.
या पालकांची बालके , ती देखील कौतुक वाटावे अशा स्वभावाची
असतात." या साऱ्यांचे  रहस्य काय असेल ?
मित्रहो- या साठी आवश्यक असलेले " अनेक स्वभाव विशेष "
हे या गृहस्थांचे आणि गृहिणींचे स्वभाव-विशेष असतात.
उदा-. हिशेबीपणा , काटकसरीपणा , आणि कंजुषपणा "
यातील अंतर त्यानी कुशलपणे मिटवलेले असते."
योग्य ठिकाणी  योग्य खर्च करणे- हिशेबीपणा , हाच खर्च
कमीतकमी पैशात जो करू शकतो तो "काटकसरी "असतो, आणि,
घरातील सर्वांचा विरोध -पत्करून ,  नाराजी ओढवून घेऊन सुद्धा जो
"पैसा खर्च करू इच्छित नाही-" -तो कंजूष -म्हणवला जातो
"घरातील सर्वांच्या आवडी-निवडी पूर्ण करणारा कुटुंब -प्रमुख अर्थातच
सर्वांना प्रिय असणार-  बायकोला नवरा प्रिया असणार, पतीला पत्नी
प्रिय असणार, आणि मुलाना "आई-बाबा "आवडणारे असणार" हे उघड आहे.
"योग्य वेळी खर्च  करणे-गरज असेल तेव्न्हाच खर्च करणे, ही चांगली सवय आहे.
 पण  उसनवारी करून, "मनात आले म्हणून " चैन करणे" परवडणारे नसते.
कर्ज घेऊन हौस-मौज करणारे -" हे या स्वभावापायी अडचणीत येतात, पण
वरील दोन्ही प्रकार न करणारे "महाभाग " आहेतच. खिशातील पैसा "बाहेर
काढणे" यांच्या जीवावर येत असते.  ही माणसे स्वतः साठी  तर सोडाच, इतर
कुणा साठी देखील "पैसा खर्च करू इच्छित नाहीत, परिणामे यांच्या घरातील
वातावरण नेहमी "असमाधानी असते." अशा घरातील मुले -दुसर्यांच्या घरात
गेली की -"काय काय खाऊ आणि किती खाऊ"..? असे वागतात,आणि ते सर्वांना जाणवणारे
असते" हे फार वाईट आहे.
आपपल्या घरातील सर्वांना "आनंद देणे, समाधान देणे " हे आपले कर्तव्य असते ,
ते कोणत्या पद्धतीने द्यायचे हे  विचारपूर्वक ठरवले तर, घरातील वातावरण छान राहू शकेल.
हे पटलं तर होय म्हणा ..!
|| जय श्री स्वामी समर्थ ||
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"हे पटलं तर होय म्हणा ...!                                                          -अरुण वि . देशपांडे -पुणे.
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कविता - "व्यवहार आणि मन "

||श्री ||                                                             
मित्रहो-
सावंतवाडीहून प्रकाशित होणारे सर्वपरिचित मासिक -"आरती "
 मासिकाच्या एप्रिल- २०१२ च्या अंकातून  माझी
कविता प्रकाशित झाली आहे.
आपल्या अभिप्रायार्थ कविता सादर आहे.
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कविता - "व्यवहार आणि मन "                            
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मन असते हळवे नि खुळे
डबडबती कशानेही डोळे
नाही येत बेगडी व्यवहार
रहाते तसेच दुधखुळे ...........||
कुणीच नसतो कुणाचा कधी
लक्षात येत नसते आधी कधी
अर्ध्या प्रवाही सोडता कुणी
शहाणपण येते कधी कधी .....||
भाव- भावना या सगळ्यांची
किंमत शून्य पैशाच्या जगात
सोसावे लागतात मग तडाखे
उन्मळते मन हे कधी कधी .....||
आपण आपले एक करावे
येईल समोर  , सामोरे जावे
येता आधाराला कुणी कधी
नशीब आपले , बरे समजावे.....||
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कविता -व्यवहार आणि मन ..||                                              -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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कविता- "माझे प्रेम हे असे आहे ...!"

कविता- "माझे प्रेम हे असे आहे ...!"

by Arun V. Deshpande on Sunday, April 22, 2012 at 6:39pm ·
श्री ||                                                                         -अरुण वी .देशपांडे -पुणे.
कविता - प्रेम हे असे आहे...!
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असतील सांगणारे तुज
प्रेम तुझ्यावर खूप आहे
शब्दातून सांगणार नाही
माझे प्रेम हे असे आहे........||1||
मनातून उतरण्या पेक्षा
मनात भरावे ग  कधीही
मज व्यक्त होणे वाटे स्वस्त
अव्यक्त प्रेम  हे असे आहे .....|| 2||
मने जुळतात दोन  जेंव्हा
तेव्न्हा आपले कुणी वाटते
जिव्हाळा असतो जो  मनात
तेही प्रेम , हे असे आहे .......   ||3||
एकांती निरामय मनाला
प्रेम आधार देणारे आहे
मी ही आधार असेन तुझा
माझे प्रेम हे असे आहे...........|| 4||
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कविता - "माझे प्रेम हे असे आहे ..." ||              -अरुण वी देशपांडे -पुणे.
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kavitaa

कविता - " तू...|| अरुण वि .देशपांडे -पुणे.

कविता - " तू...|| अरुण वि .देशपांडे -पुणे.

by Arun V. Deshpande on Tuesday, April 17, 2012 at 6:17pm ·
श्री|                                                            -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
कविता - " तू ...||
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चंद्र आकाशीचा निवांत तो  | केव्न्हाचा मज न्याहाळतो  |
हसतो  , चिडवतो  म्हणतो  | "तू - काल तर भेटून गेली  ||
मज नको नकोसा वाटतो     | दुरावा भेटीतील हा असा  |
आठवणीत तुझ्या हरवतो   |  तू हूरहूर  लावून  गेली      ||
भेटीतील सारे देणे -घेणे      |  नि सहवासाच्या खाणाखुणा  |
शब्दांचे जरी विरून जाणे    |  तू आठवणी  देऊन गेली      ||
झुळूक बघ छानसी आली    |  ती कानावरून माझ्या गेली   |
येणारेस पुन्हा उदयाला तू    |  ती सांगून किती  छान  गेली  ||
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कविता - " तू...||                                                         अरुण वि  .देशपांडे -पुणे.
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कविता - " तू...||

अतीव समाधानाचा आणि गौरवाचा क्षण जीवनातला ..! दि.७ एप्रिल -२०१२. हैद्राबाद.

|| श्री||
अतीव समाधानाचा आणि गौरवाचा क्षण
जीवनातला ..! दि.७ एप्रिल -२०१२. हैद्राबाद.
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 मी "स्टेट बँक औफ हैद्राबाद " मध्ये  २७ फेब्रुवारी १९७३  ते ३० जून  २००६ -
अशी ३३ वर्षे नोकरी केली. बँकेतील नोकरी म्हणजे "रुक्ष आणि करड्या - कोरड्या  वातावरणात
केलेली नोकरी " हे जरी खरे असले तरी,
या दरम्यान "लेखनाच्या माध्यमातून थोडेफार सामाजिक उपक्रम करण्याचा यशश्वी  प्रयत्न केले.
लेखक-कवी आणि बालसाहित्यकार  आणि बाल-साहित्य चळ वळ मधील एक कार्यकर्ता  म्हणून
माझी थोडी फार ओळख सर्वांना झाली होती.
माझ्या बँकेकडून या कार्याची दखल मात्र घेतले जात नसे. याचे कधी -कधी वाईट वाटायचे.
कारण "घरचा आहेर" महत्वाचा असतो. असो.
निवृत्त झाल्यावर तर "विजनवासात" असल्याची भावना मनात असते.. पण अचानक वळवाच्या
पावसाच्या सुखद सरी" याव्या तसे सुखद क्षण माझ्या वाट्याला आले."
निमित्त होते" SBH  Rtd .Employees  Association च्या रौप्य महोत्सवी वर्ष निमित्त
आयोजित विशेष मेळाव्याचे..  दि. ७ एप्रिल- २०१२ रोजी - या मेळाव्यात " माझ्या लेखन योगदानाची -
आणि समाजिक उपक्रम -कार्याची दखल" म्हणून "बँकेच्या MD  च्या हस्ते माझा सपत्नीक " शानदार
असा सत्कार करण्यात आला . श्री .एम .भगवंतराव - मानेजिंग डायरेक्टर  यांनी "शाल-श्रीफळ -
स्मृतीचिन्ह" देऊन आमचा गौरव केला.
सभागृहातील हजार -बाराशे उपस्तीथ मान्यवरांनी टाळ्यांच्या गजरात आमचे अभिनंदन -कौतुक केले.
मित्र हो- हा माझ्या जीवनातील अतीव- समाधानाचा आणि गौरवाचा आहे.
या प्रसंगाचे छायाचित्र सोबात आहे.

स्टेट बँक ऑफ हैदराबाद चे , एम डी. श्री .एम. भगवंत राव - अरुण वि.देशपांडे - सौ- मीनाक्षी अरुण देशपांडे यांचा गौरव -सत्कार" करतांना.

- एक बाल-कविता - नाती-गोती ||

श्री ||                                                                                -अरुण वि देशपांडे -पुणे      
नमस्कार आणि -                                                           
शुभप्रभात सर्वांना ..!
- एक बाल-कविता - नाती-गोती ||                  
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आईने करता आठवण
धावत येतो कामा
भाऊराया हा आईचा
मोठ्या कामाचा मामा......||
सावलीपरी बहिण आईची
सदैव उभी असे पाठीशी
करून घेई लाड नेहमी
आपली ही लाडकी मावशी ....||
बाबांची लाडकी बहिणबाई
ही आपली आत्याबाई
बाबांचे भाऊ - "आपले काका -
काकांची बायको - काकीबाई ".......||
आई-बाबांचे ही-" आईबाबा "
हे दोघे आपले  "आज्जी नि  आबा "
सांगतात गोष्टी - देती हो खाऊ "
यांच्या सोबत गाणी गाऊ ............||
मावस, आत्ये, चुलत, मामेभाऊ ,
आपण सारे भाऊ - भाऊ.
एकमेकाकडे सदा येऊ - जाऊ ,
धम्म्माल करण्यात रंगून जाऊ .....||
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बाल-कविता - "नाती- गोती "                                                            -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
(पूर्व-प्रकाशित- टानिक- दिवाळी वार्षिक- २०११ )
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लेख- हे असे का होते ?

||श्री|                                                                         -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
लेख- हे असे का होते ?
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मित्र हो,
आपण सारे सर्वजण सामान्यजन " आहोत, हे मान्य केले की ,बाहेरच्या
जगातील अनेक गोष्टींचे जे अदृश्य असे "दडपण " आपल्या मनावरती आलेले असते
ते कमी होण्यास मदत होते. पण अनके वेळा आपणच आपले स्वतःचे मूल्यमापन करतांना
झुकते माप देऊन, आपल्या बद्दलच्या भ्रामक - कल्पनांना  अधिक बळकटी देतो. हे असे का होते ?
तर सभोवतालीच्या वातावरणाचा पुरेसा अभ्यास नाकारता, आणि स्वताच्या मर्यादा न ओळखता ,
चार- चौघात वावरतांना ज्या काही चुका होतात, त्यमुळे आपले वावरणे ,वागणे, आणि बोलणे  हे
सारे काही " हास्यास्पद " होऊन जाते.-- हे असे का होते..?
तर, आपण स्वतःला "अभ्यासोनी प्रकटावे " या पद्धतीने  सादर करीत नाही. आणि त्यामुळे "चार -चौघात"
फजिती होते". त्यामुळे "प्रसंगी श्रोत्याची भूमिका घेऊन, समोरच्या व्यक्तीची ऐकून घेणे  श्रेयस्कर .
अपुऱ्या- माहितीवर आधारित आपले संभाषण ऐकून लोकांची करमणूक होते आहे" ,हे मान्य करण्याची
सुद्धा काही जणांची तयारी नसते.. हे असे का होते ?
स्वतःकडे कमीपणा घेऊन, दुसऱ्यांचे मोठेपण मान्य करण्याची तयारी ज्या वेळी आपल्या मनाचे होईल,
त्यावेळे पासून खूप फरक पडेल.  अगोदर श्रोते व्हा , साठ्वेलेले ज्ञान तुम्हाला आपोआपच बहुश्रुत बनवेल.
घाईघाईने स्वतःचे "प्र- दर्शन " करण्याच्या वृत्तीवर अंकुश ठेवता आला तर बरेच .., नसता ,
"अपयश आले के- माझ्याच बाबतीत - हे असे का होते ?" हा प्रश्न सुटणार नाहे.
काय वाटते तुम्हाला -? सांगा बरे ?
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लेख- "हे असे का होते ?                                                                                             -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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