Monday, July 29, 2013

कविता - याला काय म्हणावे ..?

कविता - याला काय म्हणावे ..-?
-अरुण वि. देशपांडे -पुणे.
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मनातले साचून ठेवायचे  खोलवर ते
अन खोटे खोटे  रोजच  हसायचे
फसवत स्वतहाला जगवायचे
याला काय म्हणावे...?
दुसर्यांना  चांगले  म्हणणे  अवघड  वाटते
घेण्याच्या  बदल्यात , देणे  नकोसे वाटते
टिमकी स्वत:ची  वाजवणे आवडे  सदा
याला काय म्हणावे ..?
भोवतालचे  वाईट सारे ,मीच तेवढा  चांगला
जो दिसला त्यास  नेहमी वाईट ठरवला
सगळ्या ठिकाणी मी, आग्रह हा..
याला काय म्हणावे ?,
बोलण्यास शब्द असुनी ,अबोला का धरावा
सहवास असतांना ,त्यात  दुरावा  का यावा
क्षण आनंदाचे सोडून, शोक करतो पुन्हा
याला काय म्हणावे ?
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कविता - याला काय म्हणावे...!

लेख- काही असे काही तसे ...!

लेख- काहे असे काही तसे ....!

-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो- ९८५०१७७३४२

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आपण ठरवलेल्या खूप गोष्टी  करता करता  त्या
पूर्ण होण्याचे राहून जाते, आणि मनाला चुटपूट
लागून राहते. पुष्कळदा हाती घेतलेले एखादे कार्य
अर्धवट सोडून द्य्यावे लागते, कारण "आपल्या
स्वभावातील  धरसोड -वृत्ती ".
आरम्भशूर व्यक्ती" आपल्या कार्याचा आरंभ मोठा
गाजावाजा करून करतात, यामुळे अल्पकालीन
प्रसिद्द्धीही मिळून जाते, हा कार्यभाग सिद्ध झाल्या
नंतर मात्र " हाती घेतलेल्या कार्याचे काय झाले ? "
हा प्रश्न कुणी विचारीत सुद्धा नाही. थोडक्यात "साध्य
एक कार्याचे असते", ते झाले की बाकी सोडून द्यायचे .
असा सोयीस्कर मामला असतो.
उजाडलेला दिवस मावल्तान्ना ,उद्या येणाऱ्या दिवशी
काय करायचे ", हे आपण खुपदा "नुसते ठरवत असतो",
प्रत्यक्ष्य कृत्ती करण्याचे आपण सहजतेने सोडून देतो",
थोडक्यात - या वाचून काही अडलेले नाहीये न !,
यामुळे "आपल्या हातून काही होऊ शकत नाही ", याला
आपण स्वतः जबाबदार आहोत."
मग लोकांनी यशाची शिखरे सर केली तर ", आपल्या
नाराज होण्यालां काहीच अर्थ नसतो.
थोडक्यात- "कार्यमग्न रहाणे सदैव हिताचे असते.
आपले जीवनानुभव समृध्द करणारे वाक्य-प्रचार आपण नित्य ऐकत असतो.
"पालथ्या घड्यावर पाणी -- म्हणजे आपल्या प्रय्त्न्यांना येणारे निराशाजनक फळ.
पुष्कळ वेळा आपल्यावर "कुणाला काही समजावून सांगण्याची वेळ येते ", यात
अपेक्षा अशी असते की -निदान समजावून सांगितले तर डोक्यात काही  प्रकाश पडेल..!",
पण बहुतेक वेळी वाट्याला निराशाच येते .
याचे कारण असे  की- "" ज्यांना आपण हे सांगत असतो, त्यांनी त्यांच्या
 "मनाचे कान बंद करून ठेव्लेलेले  असतात.
दर्शनी कानांवरती पडणारे शब्द मना- पर्यंत पोहचतच नाहीत .
बरे "पालथ्या घड्यावर पाणी "- हा अनुभव सगळ्या वयोगटातील व्यक्तीकडून येतो .
साहजिकच ' जे समजावून सांगण्यास तयार असतात, त्यांच्या वाट्याला कधी कधी
दुरुत्तरे ऐकण्याची ही वेळ येते." त्यामुळे 'ज्या व्यक्ती शांत स्वभावाच्या आहेत ,अशांना
"निदान तुम्ही तरी थोडे सांगून बघा .." अशी विनंती केली जाते.
आपण सकाळी खूप छान समजावून सांगतो, समोरचा ऐकून ऐकल्या सारखे करतो आणि,
थोड्या वेळाने जाणवते " या माणसात तर काहीच बदल झालेला नाहीये ..!
यालाच वैतागून आपण म्हणतो- "सारे पालथ्या घड्यावर पाणी ..!
शाळेला जाताना घाई, मुलांना तयार करतांना घाई, ऑफिसला जातांना घाई, किचन मध्ये
तर निव्वळ हातघाई ची चौफेर लढाई , आणि मग धांदल , गोंधळ, मन स्थिर नाही.
मग काही किरकोळ कारणा वरून चिडचिड , राग-राग , तो राग मुलांच्या पाठीत धपाटे
देण्या पर्यंत जातो. कारण फक्त ५ मिनिटे अगोदर निघाले तरी चालते या हिशोबात ,
"फक्त ५ मिनिटे लेट...! होऊन जातो आणि लेट -मार्क,ला सामोरे जावे लागते.
हे सगळे टाळणे आपल्याच हाती आहे, "" घड्याळ १५ मिनिटे नुसते पुढे करून काय उपयोग नाही !"
त्यसाठी सगळी कामे ५ मिनिटे अगोदर पूर्ण करून शांतपणे बाकीचे कामे नीटपणे करू शकतो.
हे  कळत नाही  ? असे कसे  म्हणू  ?
फक्त कार्याची इच्छा नाहे, मनाला जी सवय लागली आहे, ती बदलणे अवगढ असते.म्हणून
हे असे होते. यावर खरे आज फक्त ५ मिनिटे वेळ काढा आणि चिंतन करा ,विचार करा ,
आणि उद्या पासून वेळापत्रक सुधारित करा, बघा" वेळ साधल्या मुळे "- आपले किती श्रम
वाचतात ते......!
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लेख- काही असे काही तसे ...!

कविता - आठवावे तव नाम हे गुरुराया ...||

कविता - आठवावे तव नाम ..!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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आठवावे तव नाम हे गुरुराया
शीणवटा  मनाचा घालवाया ...।। धृ ।।
रहाटगाडगे  हे रोजचे  चालू
रेटूनी रेटू नी  किती  हो थकलो
एकचित्त होऊनी  आता  बसलो
नामस्मरण तुमचे हो  कराया .....।। १ ।।
उपदेशाचे बोल  तुमचे अवघे
मनात हो साठवुनी  ठेवियाले
विपरीत वर्तमानात आजच्या
वागण्या  बल द्यावे गुरुराया .....।।२ ।।
किंमत  हरवुनी  बसली  माणसे
हरवून बसले  बोलते शब्दही
रंग बदलणे  बरे नव्हे कधीही
हे भान तुम्ही द्यावे गुरुराया ....।।३ ।।
आठवावे तव नाम हे गुरुराया
शीणवटा  मनाचा  घालवाया ...।। धृ..।।
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कविता - आठवावे तव  नाम हे गुरुराया ...।।
- अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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कविता - आपणच असावे आपले सोबती ..!

कविता - आपण असावे आपले  सोबती ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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रस्ते नवे  खुणावतात दरवेळी अन
कोमेजलेले मन पुन्हा  घेते भरारी
अर्धवट स्वप्ने  पुन्हा तरळू लागता
सुचते नवेसे  मग मन घेई भरारी ...!
खाच -खळगे  वाटचालीत  ते  म्हणुनी
वाटचाल आपली , अशी  कधी का थांबते ?
आशेच्या  आधारे मग  चालावे  आपण
मुकामाचे ठिकाण आपले  नक्की येते ...!
रस्ते चालताना  नेहमी  घोळ होतो
हम रस्ते  रुळलेले  ते , सोडूनी  सारे
भूलव्या  पायवाटेचा  खूप  मोह  होतो
अशा कठीण वेळी-क्षण  कसोटीचा  होतो  ...!
आपणच असावे  हो सोबती आपले
आपणच आपले ठरवावे  हेच खरे
लोकांचे एक बरे असते , होवो  काही ,
म्हणती ,  बघा ,  आमचेच झाले ना  खरे ...!
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कविता - आपण असावे आपले सोबती ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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कविता - मनाची समजूत ...!

कविता - मनाची  समजूत ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे .
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लोकांच्या गर्दीत चुकून एखादा  चेहेरा
आपला कुणी आहे असे वाटू लागते
व्यवहारी इतका निघतो तो , की
भावनेला किमत नसते  , हे पटू लागते ...।
का बरे असे वागत असतात आपलीच माणसे ?
मनाच्या आतली आहेत  ,हे सत्य  ना फारसे
शब्द्द आठावता त्यांचे ,किती खरे  ते  वाटले
कुठे हरवला भाव त्यातला ,मन  आज  शोधू  लागते ..।
आणा- भाका , त्या  शपथा  आणिक , किती विश्वास  होते
मर्जी फिरता  आता त्यांची , लगेच तोंड फिरवले होते
बदलते  रूप पाहुनी  आज त्यांचे ,मन भोवन्डले  होते..
मनाची समजूत घालण्या ,मित्रा  शब्द सापडत  नव्हते ...!
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कविता - मनाची समजूत ..!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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कविता - राहून गेले ना हो शेवटी....!

कविता- राहून गेले ना हो  शेवटी ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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   दिले क्षण ते आठवणींचे
   जपून ठेविले  मनात  ते
   शब्द त्यांचे  सोबत अजुनी
   सांगणे राहून गेले शेवटी ....!
    भेटला कुणी  देऊन गेला
    कधी काही घेऊनही  गेला
    बरे  की - वाईट  असे बोलणे
    राहून गेले  ना  हो शेवटी ....!
    फटकळ  जे  भेटले  त्यांचे
     काही  सांगायलाच  नको
     मने दुखवणे छंद त्यांचा
     टोकणे  राहून गेले  शेवटी ...!
     विचार केला सर्वांचा नेहमी
     काय वाटेल  ?प्रश्न नेहमी
      मला  काय वाटते  ! नेमके
      सांगणे राहून  गेले शेवटी .....!
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कविता - सांगणे  राहून गेले  न हो शेवटी ...!
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कविता - एक नाम साईराम ....!

कविता - एक नाम साईराम  ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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 एक  नाम  साईराम
 मनास देते  आराम
 घ्यावे  हो मनापासुनी
 सदा गोड  साई नाम ....।।
 साई  दर्शन सुखवी
 मनास  नित  शांतवी
 मनी  नाम आपोआप
 साईराम साईराम ........!!
 गुरुरूप साईराम
 मार्ग दावी साईराम
 शरण चरणी त्यांच्या
 कृपा करी  साईराम ......!!
 संसारी रमावे जरुर
 पडू  नये  हो  विसर
 रोज घ्यावे  गुरुनाम
 साईराम  साईराम .......।।
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कविता -एक नाम  साईराम .....।
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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कविता - ओझे ...!

कविता - ओझे .....!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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किती  मोकळे  आणि छान असते
मनावर नसते कशाचे ओझे ,
 उलट अवस्था  असते मनाची
वावरतो घेउनी एखादे  ओझे.........!  ।।१ ।।
काय सांगावे ,नसे अंदाज कधी
काय भावेल  , काय  रुचेल  याचा
कसरत असते ही  अवघड
असते मनावर खूप  हे ओझे ....!...।।२ ।।
कोण कशाचा कसा लावील अर्थ
चुकता सगळे,  निव्वळ  अनर्थ
शब्द बुड बुडे -हरवतो  अर्थ
असह्य  होते  मग सारे हे ओझे .....!..।। ३।।
परक्याला  मन समजू नये  हो ,
हे  समजण्या सारखे  एक वेळ
आपले  कुणी असे वागले  तर,
कसे वागवावे  अवगढ ओझे ........!   ।। ४ ।।
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कविता - ओझे ..!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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Sunday, July 28, 2013

बाल कविता - परिश्रमाचे रसाळ फळ ...!

 बाल कविता -
परिश्रमाचे रसाळ  फळ ...!
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मेहनत करिती  जे  नेहमी
फल मिळते त्यांनाच नेहमी
आळश्या बद्दल काय सांगावे
कार्या पासुनी दूर ते नेहमी ....!
कार्यास आरंभ करती जे
पण सिद्धीस  ना नेती कधी
मध्येच सोडून कार्यास देती
आरम्भशूर  हे असे नेहमी ....!
संयम - चिकाटी  आणि जिद्द
हे गुण असती  ज्यांच्या  जवळी
कार्यपूर्ती  होते  हातून त्यांच्या
परिश्रमाचे रसाळफळ मिळे  नेहमी ....!
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 बालकविता "-
परिश्रमाचे रसाळ फळ ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो- ९८५०१७७३४२.
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लेख -आपण असे असावे..!

लेख- आपण असे असावे .....!
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इतरांनी कसे असावे ?'" या प्रश्नाचे उत्तर देताना आपण अगदी मन-मोकळेपणाने
सांगत असतो  की ,"  कुणी कसे बोलावे, कसे वागावे, सारासार विचार कसा करावा, काय भले- आणि

काय वाईट ?
समोरच्या एखाद्या व्यक्तीला ."असे समजावून सांगण्याची  संधी आपण
सहसा सोडीत नाहीत , कारण "आपल्याला सांगणे आवडत असते.
पण -कधी "आपल्यावरच  कुणी सांगितलेले ऐकण्याची वेळ आली तर ?,
मग मात्र -आपण आपल्या सोयीचे जे आहे,जेव्हढे आहे", तेच  ऐकत असतो .
पण ऐकत  सगळे मात्र आहोत", असे भासवत असतो.
मित्रांनो " आपण आपल्याला फसवत आहोत असे वाटत नाही का ?
 आता आपल्या घरातील मुले आणि त्यांचे आई आणि बाबा

  यांच्यात मनमोकळा असा सुसंवाद    
चालू असेल तर घरातील वातावरण प्रसन्ना असणार ,
निर्मल भावना, मोकळ्या अपेक्षा ,परस्पर जिव्हाळा ,
आणि नात्यातील ओढ, ही कुटुंब -जीवनाची सुखी लक्षणे आहेत.
घरातील वातावरण नेहमी मन-मोकळे ,सुखद असायला हवे आहे आणि ,
ते आनंदी आणि हसरे -खेळकर ठेवणे" सर्वांचे काम असते.
आपण एकमेकांचे आहोत" ही सुखद भावना नातेबंध
अधिक पक्के करणारी  असते.
या साठी आई-बाबांनी मुलांसाठी वेळ द्यावा , आणि मुलांनी
आपल्या आई-बाबांच्या प्रेमावर विश्वास ठेवावा ,
म्हणजे "घर" आणि घरातील माणसे सुखी आणि आनंदी असतील
हे सांगण्याची सुद्धा गरज नाही.

वरील विवेचनावरून ,तुम्ही म्हणाल ,"आपण असे असावे ",
हे सांगायला काय जाते, रोजच्या जगण्याच्या कटकटी इतक्या
आहेत की - कुणाजवळ वेळ आहे ?
पण- खरेच विचार तर करून पहा, - आपल्या वागण्यामुळे इतराना
आनंद होण्या ऐवजी "त्रास होत असेल" तर काय उपयोगाचे ?
एकमेकाच्या सहवासाने प्रेम वाटावयास पाहिजे. आणि आपले बोलणे,
आपले शब्द नेहमी मनाला सुखावणारे असतील तर ,लोकांना ही बोलण्यास
नक्कीच आनंद वाटेल,नाहीत तर "विसंवादाची मोठी दरी निर्माण झाली तर ",
दुरावा वाटणारच.
तेव्न्हा चांगले झाले नाही कुणाचे -हरकत नाही, वाईट मात्र कधी होऊ नये ,"
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लेख- आपण असे असावे
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो-९८५०१७७३४२
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कविता- खूप वाईट वाटते तेंव्हा ...!

कविता -    खूप वाईट वाटते तेंव्हा ...!.!

-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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आपले  म्हणवणारे  जेंव्हा
वाऱ्याप्रमाणे बदलून दिशा
समोरून जातात हे जेंव्हा
खूप वाईट वाटते  तेंव्हा ...!

काय गृहिते असतील ? या
स्व-केंद्रित  माणसांची ,ज्यांना
कधी  पर्वा नसते  कुणाची ..

भावना तुडवुनी जाती
खूप वाईट वाटते  तेंव्हा ...!

हळुवार ,प्रेम भावना यांना

किंमत नसते यांच्या लेखी

पैसा असतो  यांचा  सोबती

नसतो दुसरा कुणी सोबती
खूप वाईट वाटते तेंव्हा.......।।

माणसे कामा येती शेवटी

माहित नसेल का हे यांना

तरी लोटुनी देती माणसाना
खूप वाईट वाटते तेंव्हा ....।।
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कविता - खूप वाईट वाटते तेंव्हा ....!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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लेख- प्रवास-

लेख- प्रवास ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो- ९८५०१७७३४२

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बहुतांश वेळा प्रवास हा काही बघण्या साठी  केलेला असतो. कधी एखादे स्थळ, कधी प्रसिद्ध वास्तू,
कधी निसर्ग-सानिध्यात  रहाण्यासाठी  आपण प्रवास करीत असतो.
या प्रवासातील अनुभव आपल्याला जीवनाकडे  पाहण्याची नवे दृष्टी  देऊन जातात , आणि आपण
अधिक अनुभवसंपन्न  होऊन जातो, या साठी प्रवास महत्वाचा आहे.
प्रवास म्हणजे एका ठीकानाहून दुसर्या ठिकाणी जाणे ", एवढाच नाही. प्रवास ", म्हणजे अनेक
अनुभव घेत -घेत स्व:ताहात  बदल घडून येण्याची प्रक्रिया आहे.
सोबतीचे महत्व, आणि सह-प्रवासी  यांचे असणे किती गरजेचे आहे "ही गोष्ट प्रवासामुळे  कळते.,
तसे म्हटले तर आपले  जगणे हा ही एक प्रवासच असतो.".
म्हणून तर या प्रवासाला "आनंद -यात्रा" असे म्हणावेसे वाटते .
या प्रवासातील रस्ते कसे असतात पहा ...-
" कधी सरळ कधी फाकडा
   कधी  तिरका कधी वाकडा
  साथ सावली सोबत मिळता
  सुखकर झाला सारा रस्ता......||
असा ही प्रवास आपण करतो खरे , पण तो एकट्याचा प्रवास
कधीच नसतो. अनेकजण सहप्रवासी म्हणून या वाटेवर सोबत
करतात ," या माणसांना जाणून घेण्याचा प्रवास", हा देखील काही
कमी महत्वाचा प्रवास नसतो.
जीवनाच्या वाटचालीत जे अनुभव येतात, ते हे अनुभव आपली
शिदोरी असते. ही शिदोरी पाठी घेऊन आपण पुढचा सारा प्रवास
अधिक सजगपणे करीत असतो.
म्हणून तर एक व्यक्ती म्हणून आपली जी जडण-घडण " होत असते ,हे घडणे
म्हणजे देखील एका आंतर-बाह्य  अशा बदलाचा एक प्रवासच असतो.".
अशा प्रवासात आपल्या विचारांना नवी दिशा मिळते, जाणीवांना नवे धुमारे
फुटू लागतात , जुन्या धारणा बदलून , नव्या धारणा स्वीकारण्याची मनाची
तयारी होऊ  लागते.
आपण एका जागी स्थिर राहिलोत की , एक जडशीळ  अवस्था येउन  जाते ,
अशा वेळी  बदल घडवून आणू शकणारा असा  "प्रवाही -प्रवास", आपण
करायलाच हवा. यामुळे आपल्या आयुष्याला आलेली "मरगळ ", नाहीशी
होऊन, एक ताजेपणा नक्की  येतो.
पहा अनुभव घेऊन.....!
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लेख- प्रवास ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो- ९८५०१७७३४२

कविता - थांबवा समर्था अवघा हा गोंधळ ....!

कविता - थांबवा समर्था अवघा हा गोंधळ......!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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सद्गुरु समर्था आहे तुम्हास
चिंता  साऱ्या  विश्वाची सकळ
बघा जरा माझ्या कडेही,  झाला
मनाचे ठायी  अवघा हा  गोंधळ .....!
कोण आपला ,कोण नाही, कळेना
काय करावे , काय नाही , सुचेना
मिळाले जरी थोडे , हवे  पुष्कळ
मनाचे ठायी  अवघा हा गोंधळ ........!
अधीर मनाचे कौतुक आम्हा भारी
करतो याच्यासाठी  आम्ही  लाचारी
शांत नसे कधी ,सदा करी वळवळ
थांबवा समर्था अवघा हा गोंधळ .........!
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कविता - थांबवा समर्था अवघा  हा गोंधळ ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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लेख- जाणीव ..!

लेख- जाणीव
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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ज्याच्या मनाला जाण आहे ,त्यालाच जाणीव होऊ शकते .जो दुसर्याची मने
आणि त्यांच्या  मनातील ओळखू शकतो, त्यालाच मनातले सारे काही जाणून घेता येते.
पण हे सारे सोपे आहे ",असे मात्र मुळीच नाही. या साठी आपले मन,मोठे असायला हवे आहे.
स्वतहा  पेक्षा अगोदर इतरांच्या मनांचा  विचार  करण्याची सवय असायला हवी . तरच
आपण स्वतः पलीकडले  असे काही पाहू शकतो, त्या  बद्दल  विचार करू शकतो. अशा
स्वभावाची व्यक्ती आपल्या सहवासात आल्यावर ,त्याच्या बद्दल आलेल्या अनुभवावरून
सहजतेने  बोलून जातो."खरेच- जाणीव आहे बरे का याला ..!.
सुखाच्या वेळे पेक्षा "- संकट प्रसंगी , अडचणीच्या वेळी ,निराशेच्या चक्रात सापडल्यावरती
मानसला माणसाचे गरज असते. कुणी आपली अडचण समजून घ्यावी , दुक्ख समजून घ्यावे ,
संकट आले आहे-,त्यातून बाहेर पडण्यासाठी मदत करावी अशी अपेक्षा असते , आणि ती देखील
समजून घेऊन, न- सांगता." सांगितल्यावर मग काय उपयोग.?
म्हणजे एक्नुच " जाणीवेचा हा खेळ".असा तसा सोपा नाही,
समज यायला लागते ,तसे आपल्या जाणीवानचा विस्तार होऊ लागतो.
आणि या उमजण्याची -समजण्याची  पातळी वरवरची  असेल तर  आपण
काही उपयोगाचे ठरत नाही. आणि हे" पातळी जर वरची " असेल तर, आपल्याला
लोकांना समजून घेणे " हे जबाबदारीचे काम स्वीकारावे लागते..
वास्तविक ही  जबाबदारी  जोखमिचे  काम असते,म्हणजे - एक तर लोकांना समजून घ्या,
त्यांच्या मनाप्रमाणे करून द्या," ते खुश होतीलच याचे खात्री मात्र नसते.
पण  असे "जाणीव असलेले , जबाबदार - माणसे ", आपल्या भोवती असतात म्हणून तर
भांबावून गेलेल्या , गोंधळून  गेलेल्या  अनेकांना या जाणीवेच्या -जबाबदार माणसांची मदत होते.
जाणिवेचे प्रकार वेगवेगळ्या वेळी वेगवेगळे असतात , त्यामुळे  अनेक
अवधाने ", पाळावे लागतात. तारतम्य  असणे, गांभीर्य असणे ,प्रसंगावधान असणे,
विचारांची परिपक्वता असणे, निर्णय -क्षमता  असणे", असे  अनेक गुण- विशेष
असणारी व्यक्ती  सहाजिकच एक जबाबदार माणूस म्हणून ओळखली जाते.
हे सगळे गुण काय आणि या पैकी  काहे थोडे गुण -थोड्या प्रमाणात जरी आपलयात
असले तरी ,आपण खूप काही करू शकतो.
स्वतःचे जगणे जगतांना आपण इतरांसाठी जगायचे असते ", ही
जाणीव "आपल्या मनाला झाली तर, आपले जीवन अधिक अर्थपूर्ण  होईल.
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लेख- जाणीव ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
मो. ९८५०१७७३४२.
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लेख- एक प्रवास आठवनीतला...!

लेख- एक प्रवास -आठवणीतला "....!
-अरुण वी.देशपांडे -पुणे.
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माझ्या आठवणीतला एक प्रवास -त्यातील ही आठवण,                                                                      ,
नोकरीच्या निमित्ताने करीत असलेल्या "ये-जा - daily -up -down " या
प्रकारच्या प्रवासातील आहे. त्याला आता सुमारे ३५ वर्षे होऊन गेली आहेत ,
१९७८ मधील हा प्रसंग आहे- त्या वेळी  मी स्टेट बँक आफ हैद्राबाद मधल नोकरीच्या
निमित्ताने काही वर्ष कर्नाटक -प्रांतात होतो.
बीदर जिल्ह्यातील  "औराद -संतपुर  किव्ना  औराद बार्हाली ,या गावी  मी होतो.
दर शनिवारी -रविवारी , आम्ही सुट्टी साठी  म्हणून उदगीर मुकामी असायचो.
औराद हे मुख्य रस्त्यावरचे गाव नव्हते. अगदी आतल्या बाजूला असलेले एक तालुकावजा
छोटसे  गाव. सुमारे ४२ कि.मी  अंतरावर  चारी दिशांना  अस्लेली  मोठी  गावे म्हणजे,
बीदर, देगलूर, आणि उदगीर ,
या ठिकाण हून आड रस्त्याने जाणाऱ्या  महाराष्ट्र एसटी  बस,
या आड -वळणाच्या गावाला घेऊन जायच्या . एकम्बा  हे गाव " महाराष्ट्र एकीकरण समितीचे ",
कार्यकर्ते असलेले गाव, आणि औराद गावात सुद्धा मराठी बोलणारे खूप लोक होते. त्यामुळे
मला कानडी भाषा येत नाही", हे सांगण्याचे कधीच गरज पडली नाही.
उद्गीर् हून सकाळी  एक बस औराद साठी -"उदगीर मार्गे -एकम्बा -औराद " अशी ही बस होती.  दुसरी बस ,
त्यानंतर एकदम दुपारीच  बस असे ,
दर सोमवारी
हे बस मला औराद्ला घेऊन जायची.
त्यावेळी  बिदर जिल्ह्यातील शाळांचे पगार बँके  मार्फत होत असायचे. सहाजिकच या बस मध्ये
आजूबाजूच्या खेड्यातील शिक्षक  हमखास असायचे , नावानिशी  ओलख नसली तरी  "हे सर" व इतर अनेक प्रवासी
अनोळखी नसायचे. आणि त्यंना ही   मी  म्हणजे हैद्राबाद -"बँकेतले साहेब - ", हे माहितीचे होते.
कारण त्यांचे पेमेंट दरमहा आमच्या बँकेतून होत असायचे ,आणि पगाराच्या दिवसात मी हंगामी -हेड- क्लार्क असे, व,
माझ्या हातून पेमेंट  पास होत असायचे.सहाजिकच चेहेरे ओलख  नक्कीच होती.
दिवाळीच्या सणासुदीचे  दिवस असावेत ते, पगार जमा होण्याचा दिवस होता. आणि आम्ही ज्या
बसने  प्रवास करीत होतो, त्या रस्त्याने जात असणारी ती एकमेव बस होती, पाठी मागून येणारी नाही,
आणि साम्रोरून सुद्धा बस येण्याची त्या वेळी अजिबात श्यक्यता नव्हती.
प्रवासी भर-भरून  असलेली  ही बस  नेमकी  त्यादिवशी  पक्न्चर  झाली, आणि नंतर यांत्रिक -कारणाने
बिघडून बंद पडली. अशा वेळी मदत मिळण्याची काही  एक श्यक्यता नव्हती .
काय करावे सुचेना , मला ११ वाजेपर्यंत बँकेत  असणे आवश्यक होते, पगराचा दिवस", किती गर्दी असेल?
आणि नियमित बडे बाबू असतांना ही, पगाराच्या आठवड्यात मेनेजर साहेब मला  टेम्प - हेड-क्लार्क -करायचे.
,,नेमक्या आजच्या दिवशी मी  वेळेवर आलेलो  नाही. गर्दीच्या दिवशी  कामाच्या दिवशी दांडी मारली "!
 अशी सोयीस्कर कल्पना करून घेतली असेल सर्वांनी.  त्यामुळे  मी अधिक खजील होऊन गेलो होतो.
 इकडे रस्त्यात  बंद पडलेल्या आमच्या बसच्या बाबतीत दुपारचे १२ वाजून गेले तरी  काही घडले नव्हते,
आणि घडणार ही नव्हते.
अशा वेळी सर्वांच्या मनात एकच विचार -आपण जाई पर्यंत बँक बंद होणार ,मग
दिवाळीच्या सणाचा पगार कसा उचलणार ?, सन साजरा कसा करणार. जणू आनंद मावळून गेला होता.
माझ्या सोबत असलेले  अनेक जन मला ही  म्हणाले " साहेब, आपल्याला आता पायी चालत जाण्या शिवाय दुसरा पर्याय नाही.कारण या वेळी समोरून कोणती गाडी येणारी नाही, ना पाठी मागून कोणती गाडी . तेव्न्हा निघा पायी पायीच.
  असून असून हे ...!, १४ कि.मी अंतर आहे, चला चालत जाऊ या ,!
एकम्बा पाटी वरून पुढे  देगलूर-औराद  ही बस ही मिळू शकेल . आणि आपण , लवकरात लवकर  औराद्ला पोन्चुत .,
आणि  मग,
बँकेत  जाउन पगार उचलू. आपले सोबत बेन्केचे  साहेब आहेत, ते सांगतील मेनेजर  साहेबाला आणि केशियर
साहेबाला , मग दिवाळीचा पगार नक्की मिळेल आपल्याला .
आणि  खरेच की....
बस मधील पायी चालू शकणारे आम्ही ३०-४० जन  पायी-पायी  निघालो, १४ किलो मीटर चे अंतर आम्ही पार
केले , एकम्बा पातीवर  एस ती  च्या साहेबांना -" बस खराब झाली ,घेऊन या ,असा निरोप दिला"
, आणि  पाटी वर उभ्या असलेल्या
एका ट्रक  मध्ये बसून आम्ही  २.३० च्या सुमरास औराद ला पोंचलो,
आमचा घोळका बँकेत शिरला ,माझ्या सोबत आणखी खूपजन आलेले पाहून , आमचा स्टाफ आणि साहेब
परेशान झाले.
शांत झाल्यावर  मी आणि माझ्या सोबतच्या शिक्षक -मंडळीनी  काय प्रकार झाला , आम्ही १४ किमी सलग
पायी चलत आलोत हे ही सांगितले. आणि हे केवळ दिवाळी जवळ आहे, सणाचा पगार मिळावा ",
म्हणून आम्ही विनंती करतो की, पेमेंट  ची वेळ संपून गेली असली तरी, आजचे कारण लक्षात घेऊन ,
आम्हाला मदत करावी.,आमचा पगार जमा करून -लगेच पैसे द्यावेत, कारण उद्या पासून शाळांना सुट्या आहेत.
 एव्हाना बँकेतील कामे आटोपली होती.,रोख -रकमांचे व्यवहार बंद झाले होते ,अशा वेळी हे अचानक आलेले  काम
पाहून -
" एकट्याने एवढे काम कसे करणार ?, काशियर साहेब म्हणाले"
, मी त्यांना म्हटले, तुम्ही आणि
मोठे साहेब दोघे  पैसे द्या, बाकीची पोस्टिंग -पासिंग मी एकटा  करतो, काही  लोड नाही होणार या कामाचा .
 नेमक्या कामाच्या दिवशी आणि कामाच्या वेळी ",माझ्या कडून उशीर झाल्याची भरपाई  मी करण्याचा प्रयत्न  केला .
 " सगळी गडबड पाहून इतर स्टाफ ही पुढे आला ," आणि आम्ही सगळ्यांनी मिळून  सर्व शिक्षक -वृंदाचे पगार
त्यांच्या खात्यात जमा केले ,आणि नंतर  त्यांचे  चेक पोस्त करून पेमेंट करून "कुणालाच  निराश
केले नाही",
बँकेतील आम्ही सर्व स्टाफ ने  केलेल्या सामुदायिक मदत कार्यामुळे  डोंगरा एवढी हे अचानक करावे लागणारे काम
अगदी  सह्जेतेने
पार पडले. मनेजर साहेब. हेड -केशियार साहेब, दोघांना ही समाधान वाटले. योग्य वेळी कस्टमर खुश झालेत या गोष्टीचे.
 खिशात पगाराचे पैसे  पडल्यावर ", चालून थकलेल्या  त्या माणसांच्या चेहेर्यावर आता  समाधानाचे हसू पसरले  होते.
जातांना ते म्हणाले" बडे बाबू   आज तुम्ही बस मध्ये आमच्या सोबत होतात ,हे बरेच झाले म्हणायचे.
तुम्ही खरेच बडे काम केले आहे", उद्या पासून आम्हाला  सुट्या ,आपापल्या गावी जाणार आता .

 आमच्या घरात दिवाळी साजरी होईल, केवळ तुमच्या आजच्या योग्य वेळी केलेल्या  मदतीमुळे."
मित्रांनी , दर दिवाळीला मला हा प्रवास आणि तो प्रसंग आठवतो, आणि आमच्या मदतीमुळे
त्यांच्या चेहेर्यावर उमटलेले समाधानाचे हसू आठवते.
आज २०१३ साली  सुद्धा  ही आठवन ,
मला एका प्रवासाने दिलेल्या अनुभवाचे समाधान देऊन जाते.
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-अरुण वी.देशपांडे -पुणे.
मो- ९८५०१७७३४२.
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लेख- यशाचे वाटेकरी ....!

लेख- यशाचे वाटेकरी .!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
मो- ९८५०१७७३४२
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 यश हे यशच असते ", यशाची धुंदी भल्या -भल्यांना चढत जाते , ती इतकी की-
 त्यांचे हात गगनाला भिडतात आणि पाय जमिनीवर टेकत नसतात . तुम्ही टीम-लीडर ", असतांना
जे यश मिळते , त्यात  तुमच्या नेतृत्व- कौशल्याचा वाटा निश्चितच असतो .
 जी लढाई तुम्ही जिंकलेली असते , संघ- नायक ", म्हणून जे यश मिळवता ,ते निर्भेळ असतेच ,
पण या यशाची गोडी चाखत अस्तन्ना  , जर - :या यशाचे श्रेय माझ्या एकट्याचेच आहे", असे सांगत
मिरुवू लागलात तर, मात्र या यशाचे गोडी नक्कीच कमी होऊन जाईल .
, कारण आपण एकद्त्याने
काहीच करू शकत नाही.तसेच आपल्या उणीवा आणि मर्यादा यांची भान ठेवून, जे आपल्या कार्यात
सहभागी होऊन  - "यशाचे माप आपल्या पदरात टाकतात ", ते देखील  या "यशाचे वाटेकरी
आहेत,हे विसरून कसे चालेल.?
आपल्या मना सारखे झाले तर ", ,या यशाचे शिल्पकार
आपण स्वत:च असतो. आणि या सोबत -
- आपली बुद्धिमत्ता , आपले कौशल्य ,क्षमता -
-पात्रता , अष्टपैलुत्व ,व्यासंग -,अभ्यास ,परिश्रम ,इतके  गुण-
-विशेष ", आपल्या व्यक्तिमत्वात ठासून भरलेले आहेत", असे
अगदी मुक्तकंठाने सांगितले जाते.अशा वेळी "मदत करणार्या आपल्या
माणसांचा सुद्धा आपल्याला विसर पडतो.
 अशा यशाच्या
प्रसंगी -आपण स्वतहा-शिवाय ", इतर काही लक्षात ही ठेवत नाहीत.
खर म्हणजे आपल्या यशात अनेकजण प्रत्यक्ष्य -अप्रत्यक्ष्य रूपाने सहभागी असतात.
त्यांच्या मदती शिवाय आपण हाती घेतलेले कार्य पार पाडू शकलो नसतो ," ही जाणीव
ठवून - आपण यशचे श्रेय मन्- मोकळेपनाणे  सर्वांना  द्यायला हवे आहे.
आणि  या उलट  "मनाजोगते नाही झाले तर ?-
, मग मात्र   या  अपयशाचे खापर सोयीस्करपणे  स्वतःला सोडून ,
इतर सर्वांच्या माथी फोडून  आपण मोकळे  होतो.
त्यावेळी आपले सगळे गुण-विशेष "नाही-से ",होतात . एखादे  वेळी ,यश मिळण्या ऐवजी
अपयश पडते .आणि पराकोटीचे दुखः सहन करावे लागते
आपण  "अपयशाचे मानकरी " झालो आहोत ही कल्पना सुद्धा अगदी
असह्य  होऊन जाते .आणि मग अनेकविध कारणे सांगून "हे अपयश"
का आले ही सांगण्यात शक्ती खर्च करावी लागते.
अर्थातच सभोवतालचे घटक या अपयशाचे कारण ठरतात
,मुख्य म्हणजे-- प्रतिकूल परिस्थिती ", ही खलनायिका असते.
 वाशिलेबाजी, कम्पुगिरी , प्रामाणिक माणसांची कदर इथे होत नाही",
 असे असेल तर "माझ्या सारख्याला इथे यश मिळेल ?, आशा करणे म्हणजे
 वेडेपण ", असा स्व- साक्ष्त्कार होतो.
 आपला तो बाब्या -दुसर्याचे कार्टे ", हा सुलभ -न्याय आपण या वेळी लावतो.
 तरी पण लोकाना -पब्लिकला "तुम्ही नेमके कसे आहात ", याची पूर्ण कल्पना
असते. तुमचे यश कसे,? आणि  तुम्हाला अपयश का? आले , हे त्यानी पूर्ण जोखलेले असते.
म्हणूनच मना सारखे झाले "-म्हणून हुरळून  जाउन नये. आपया यशात सहभागी असलेल्या
सर्वांप्रती ऋणी  असावे.
आणि मना सारखे झाले नाही ", या साठी स्वतहाच्या कमीपणाला जबादार ठरवून ,नव्याने
सुरुवात करावी.
आपल्या यशाचे श्रेय कधीच एकट्याचे नसते. त्याचे वाटेकरी असतात ,मुक्तमनाने ते त्यांना जरूर द्यावे..
मग, बघा ,तुमच्या मागे उभे रहाणारे "तुमचे दोस्त"..खूप आहेत.
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लेख-  यशाचे वाटेकरी .....!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
मो- ९८५०१७७३४२

कविता- रहावत नाही म्हणून सांगतो ...!

कविता - रहावत नाही म्हणून सांगतो...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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   प्रेम करतो तुझ्यावर मी
   सांगायचे  मजला  असते
   ठरवतो मनात  कितीदा
   ते मनातच राहून जाते ...!
   महती प्रेमाची  काय सांगणे
   कवी - शायारांचे हेच गाणे
   प्रेमाचा स्पर्श मनास होता
   सुंदर मनाचा माणूस  होणे ....!
   नजरेतून बोलता  मी तुला
   समजत  असेल ना तुला
   बदलून जाते सारे काही
   अर्थ प्रेमाचा कळे मनाला ....!
   रोज उगवतो दिवस नवा
   आला तसाच निघुनी जातो
   प्रेम करतो तुझ्यावर मी
   रहावत नाही म्हणून सांगतो ....!
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कविता - रहावत नाही म्हणून सांगतो ...!
- अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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कविता - रात्र पावसाळी ही ..!

कविता- रात्र पावसाळी ही …।
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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लागली  धार आसवांची
कशी  ती थांबवू आता
श्रावणझड  बाहेर ती
सोबतीस माझ्या आता …।

रात्र पावसाळी काय करू
कोसळेल रातभर पाऊस
मनास आता कसे आवरू ?
सावरण्यास यावेस आता …।

विरहाची रागिणी ओठावरी
आठवण दाटते या अंतरी
दोन मनातले अंतर सारे
हे संपवण्या यावेस तू आता ….।
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कविता- रात्र पावसाळी ही …।
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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कविता - तूच तुला ओळखले नाही...!

कविता -  तूच तुला ओळखले नाही …।
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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तूच तुला ओळखले नाही
आवाज तुझा ऐकला नाही
खूप करता येते तुजला
हेच पुरते माहित नाही …!

आव्हाने स्वीकारावीत सदा
यात खरी कसोटी असते
उमेद हरवूनी बसणे
कधीच  ते शोभत नसते ……

मनाच्या ठायी असते खूप
दुर्दम्य अशी इच्छाशक्ती
जागवावी आपणही तिला
मदत घ्यावी ती  यथाशक्ती ….।

अजुनी वेळ गेलेली नाही
निसटूनी काही गेले नाही
उठ झटकुनी टाक निराशा
यश तुझेच , कुठे गेले नाही ….।
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कविता - तूच तुला ओळखले नाही …।
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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कविता - बहुत मिळाले तरी ..!-

कविता - बहुत मिळाले  तरी …।
-अरुण वि. देशपांडे -पुणे
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माणसे इतकी खरी
नाना त्यांच्या परी
हाव-अधिक अंतरी
बहुत मिळाले तरी …।

चित्ती ते समाधान
मनात तो संतोष
भागत नाही यावरी
बहुत  मिळाले तरी …।

संत माणसे सांगती
मनास नित्य सावरी
वाटे मिळावे अजुनी
बहुत मिळाले तरी ….।
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कविता - बहुत मिळाले तरी …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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कविता - जगणे आपुले राजा ..!

कविता - जगणे आपुले राजा …।
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे
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ताण- तणाव  भोवती
भाम्बावूनी जाते मन
थकून जाता शरीर
कोमेजून जाते मन …. ।

नाही चुकत रे कुणा
जगण्याची ही लढाई
सेनापती नसे यात
सारे लढणारे शिपाई …!

आले गेले ते  दिवस
विसरे ती हौस मौज
निरास झाले जगणे
सूर नसलेले  गाणे….

म्हणून का सोडायचे
जगणे आपले  राजा
हिम्मत  हरू  नकोस
आयुष्य फुलव राजा ……  ।
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कविता - जगणे आपुले राजा …।
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे .
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कविता - साई तुमच्या दरबारी ...!

कविता - साई तुमच्या दरबारी ….!
  -अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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   मानाने जगणे कठीण
   त्यात जीव झाला घाबरा
-  तुम्हीच यालाहो  सावरा
   घेउनी गाऱ्हाणे भक्त आला
   साई  तुमच्या दरबारी ….॥

    शब्दात फसवती नित्य
    गोंधळून सदा टाकिती
    व्यवहारी घालिती टोप्या
    याला तुम्ही आवर घाला …॥

    सद्गुरु आधार तुमचा
    आमच्या मनास  आहे
    म्हणून मन निर्धास्त आहे
    कृपा असावी इच्छा आहे …॥

    साई सद्गुरु तुम्हीच
    भक्तांचे कल्याण करिते
    अंधार झाला भोवती हा
    दूर करावा हा आजला
    घेउनी गाऱ्हाणे भक्त आला
    साई  तुमच्या दरबारी ….॥
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-   कविता - साई तुमच्या दरबारी ….!
    -अरुण वि .देशपांडे - पुणे
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कविता - गळक्या ओंज्ळीचे हात आपले ..!

कविता -  गळक्या ओंजळीचे हात आपले
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे
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गळक्या ओंजळीचे हात आपले
त्यात कधीही काहीच ना मावले
जेजे मनाला कधी कधी भावले
नशिबास मात्र कधी ना भावले ……. !

भोवताली भरलेले आनंद मेळे
गेलेला  त्यात अलगद  मिसळे
फिरकलो चकुन तिकडे जेव्न्हां
दरवाजे उघडे,  बंद केले गेले
जेजे मनाला कधी कधी भावले
नशिबास मात्र कधी ना भावले ……. !

 पाहण्या  सुंदरतेचे बाग- बगीचे
 मन असे सदाचे आसुसलेले
 तुच्छतेच्या नजरेशी नजर मिळता
 मन शेवटी हिरमुसन गेले ………. !

 गळक्या ओंजळीचे हात आपले
 त्यात कधीही काहीच ना मावले ……. !
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कविता - गळक्या ओंजळीचे हात आपले …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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लेख- संयमशील श्रोता आणि प्रेक्षक ..!

लेख- संयमशील श्रोता आणि प्रेक्षक  ...!
-अरुण वि..देशपांडे  -पुणे.
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, या दोन्ही अवस्था आपल्या मनाशी  आणि मनाच्या अवस्थेशी
संबंधित आहेत. एखादी  गोष्ट  वेळेवर न केल्याने , किंवा एखादी प्रतिक्रिया
सांगण्याचे अगर व्यक्त करण्याचे मनात असूनही राहून जाते"  ",
अशा वेळी  मनाला विलक्षण अशी "रुखरुख लागून राहते ", आणि नंतर
एकांती असता मनाला मोठीच "हुरहूर लागून रहाते. ".कारण आपण एक संयमशील श्रोता आणि
प्रेक्षक होऊ शकत नाहीत .
खरे म्हणजे हे दोन्ही आपण टाळू शकतो, त्यासाठी  परस्पर उत्तम असा संवाद हवा,
आणि  समोरच्या व्यक्तीची भावना " समजंस -श्रोता  होऊन ऐकण्याची आपली  तयारी हवी."
बहुतेक वेळा - आपण ऐकून घेण्याच्या बाजूने नसतोच. आणि पुष्कळांना तर नेहमी
"आपलेच घोडे पुढे पुढे दामटण्याची  दांडगी हौस  असते".
 या अशा सवयीच्या  लोकांनी नीटपणे ऐकून घेतलेले नसते, महत्वाचा भाग राहून जातो,
आणि मग योग्य प्रतिसादा  अभावी  भावना पोचत नाहीत.,सांगणारी व्यक्ती नाराज
होऊन निघून जाते. थोड्यावेळाने  मग, आपणच मनाशी म्हणतो-
अरे- तो असे म्हटला काय..!
चुकलेच जरा ..! आणि मग मनाला विलक्षण टोचणी लागते, ही रुखरुख ", अपराधीपणाची
जाणीव  फार त्रासदायक असते.
कार्य परत्वे आपण वेळोवेळी  निरनिराळ्या लोकांशी संपर्कात येतो - त्या वेळी आपल्या स्वभावाची
एक प्रकारे परीक्षाच असते. कोण काय बोलते आहे ? " या कडे लक्ष द्यावी लागते , तसेच आपण कुणाला
काय सांगतो आहोत ", ही ही लक्षात ठेवावे लागते , "प्रसंगावधान आणि  तत्परता - हे गुण आपल्या
स्वभावात  असणे , अशा वेळी खूप उपयोगाचे ठरते .
संयमशील श्रोता आणि प्रेक्षक " अश्या दुहेरी भूमिकेतून यशस्वी वावरता येते ",अशा व्यक्ती सार्वजनिक
ठिकाणी लोकांच्या नजरेत सहजपणे भरत असतात.
तेव्न्हा - ऐकणे तत्परतेचे असावे म्हणजे ', योग्य वेळी योग्य प्रतिसाद देता येतो.
थंड आणि मक्ख चेहेरा ठेवून समोरच्या "आपल्या माणसाला निराश करून नका ".
 तुमच्या मनात काही नसेल ही ,पण तुमच्या दर्शनी रूपाने  विनाकारण तुमच्याबद्दल गैरसमज  होणे",
 नक्कीच बरे नव्हे. समोरच्या व्यक्तीला तुम्ही "बोलणे -सांगणे लक्षपूर्वक ऐकत आहात असे वाटले पाहिजे ",
तरच तुमची भेट फलद्रूप होऊ शकेल , अन्यथा .. अपूर्ण संवाद आणि दुराव्यामुळे " भेटून ही उपयोग नाही ",
असे होणे काय कामाचे ?
आपणच आपल्याला आवरावे -सावरावे आणि घडवावे सुद्धा , यालाच तर जीवनानुभव असे म्हणतात .


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लेख- संयमशील.श्रोता आणि प्रेक्षक ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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लेख- स्वप्न जरूर पहावीत ....!

लेख- स्वप्न  जरूर पहावीत …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे
मो- ९ ८ ५ ० १ ७ ७ ३ ४ २
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माणसाचे मन मोठे अगम्य चीज आहे." मनाला काय हवे आहे ?
याचा शोध घेणे फार अवघड असते , कारण चंचल -वृत्ती " हा मनाचा
एक मोठा अवगुण आहे , त्यामुळे अशा मनाला आवरणे कठीणच असते ,
किंबहुना  वेळेवर मनाला सावरता येणे ", हे ज्याला जमले ,तो एक खरा
गुणी माणूस समजला जातो.
"आवडणाऱ्या  गोष्टींची प्राप्ती व्हावी वाटणे - अगदी सहाजिक आहे , आणि
हे सारे कल्पनेत खरे झालेले पाहणे आपल्याला सर्वांना आवडणारी गोष्ट आहे ,
यालाच 'स्वप्नातल्या दुनियेत रमणे " असे म्हणू या.
खरे म्हणजे - आपली स्वप्ने खरी होतील ", हीच मोठी आशादायी भावना आहे.
स्वप्ने आपल्याला उमेद देतात , मनातल्या कल्पना भरारी घेऊ पाहतात ", तेव्न्हा
याच कल्पना आपली स्वप्न बनतात .
स्वप्ने मनाला आनंद देणारी असतात , स्वप्नात रममाण झालेले मन आपले
एखादे दुख  ही विसरू शकते , स्वप्नात  मनाचे रंजन करण्याचे सामर्थ्य असते,
त्याच वेळी "आपल्या भव्य कल्पना साकार होऊ शकते याचे आत्मिक बल मिळवून
देते ते आपले स्वप्नच असते."
लहान -थोर  सारेच स्वप्न पहातात , जो तो आपल्या मानसिक कुवती प्रमाणे स्वप्न
पहातच असतो. थोर समाज -पुरुषांची स्वप्ने  दूरदृष्टीची चाहूल असते,अनेक विधायक -
-कार्य पूर्ण होण्याची स्वप्न पाहणे , त्यानुसार कार्य करणे - हे त्यांच्या "स्वप्नांचेच फलित असते."
धेय्य -पूर्तीचे स्वप्न पहाणारे सदा कार्यरत असतात , आपल्या
स्वप्न-पुरती साठी ते सतत धडपडत असतात , यश- अपयश या
दोन्ही गोष्टी आयुष्यात येतच असतात , पण खचून गेलेल्या  मनाने
उभारी घेतली तर उत्तुंग -स्वप्ने पाहणारी आणि ती प्रत्याक्ष्यात
आणणारी "जिगरबाज माणसे ", आपल्याला बल देणारीच असतात .
आपण आहोत त्यापेक्षा अधिक दिव्य  अधिक संपन्न , भव्य आणि उदात्त
संक्ल्पना -यांची स्वप्न पहाणारे " सर्वांची जीवन सुखदायक आणि आनंददायक
बनवू शक्तात.
स्वप्ने प्रत्येकजण पाहू शकतो , कोण कशाचे स्वप्न पाहिलं याचा
अंदाज करणे खरेच कठीण असते . कर्तबगार माणसे स्वप्ने पहातात ,
ती सर्वांच्या भल्यासाठी असतात , म्हणून त्याचे महत्व आहे.
संशोधक , कलावंत ,वैज्ञानिक , शास्त्रज्ञ , गुरुजन , यांची स्वप्ने हीतकारी
असतात असे म्हणू या.
आळशी माणूस देखील स्वताच्या आनंदासाठी स्वप्ने पाहतो , पण लोक
म्हणतात - रिकामी -त्याची स्वप्ने -बिनकामी ." तरीही तो आपल्या
स्वप्नाच्या दुनियेत आनंदीच असतो ना ।!
थोडक्यात काय- आपल्या आनंदसाठी  स्वप्न जरूर पहावीत .
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लेख- स्वप्न जरूर पहावीत …!
-अरुण वि .देशपांडे - पुणे .
मो- ९८५०१७७३४२
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कविता - खरच तू छान आहेस ..... !

कविता - खरच तू छान आहे…!
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे
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फोटोतली तू छान आहे
खरी अधिक छान आहे
खोटे तर मुळीच नाही
हे मनापासूनचे आहे …
डोळ्यात पहा चित्र तुझे
खरच  तू  छान आहे ………!

कौतुक करण्या सदाच
शब्द अपुरे ते पडती
ज्याच्या साठी ते असती
त्याला फुलापरी वाटती
तुझ्यासाठी  शब्दफुले आहे
खरच  तू छान आहे.… ……।

डोळ्यांनी पाहशी जेजे
खरेच नसते जराही ते
मनाला जाणवेल तुझ्या
तेवढे सारे खरे आहे
मला एक सांगायचे आहे
खरच तू छान आहे ………. … !
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कविता - खरच तू छान आहे …।
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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कविता -चला सारे जय घोष करू...!


कविता - चला सारे जयघोष करू
              सद्गुरू  -जय -सद्गुरू …॥
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे.
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चला सारे जयघोष करू
सद्गुरू जय सद्गुरू …॥

नामस्मरण त्यांचे करू
डोळे मिटुनी ध्यान करू
चला सारे जयघोष करू
सद्गुरू जय सद्गुरू …॥

साईराम साईराम म्हणा
म्हणा स्वामी समर्थ गुरु
चला सारे जयघोष करू
सद्गुरू जय सद्गुरू …॥

सद्गुरू  तुम्ही कल्पतरू
तवकृपे जीवन नौकातरु
चला सारे जयघोष करू
सद्गुरू जय सद्गुरू …॥
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कविता  - चला सारे जयघोष करू
              सद्गुरू  -जय -सद्गुरू …॥
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे
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कविता -वाऱ्यावरती मन हे डोलते ...!

 कविता - वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।
 -अरुण वि .देशपांडे - पुणे .
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वाऱ्या वरती मन हे डोलते
आनंदाचे आले त्यात भरते
दोन मनांची  भेट आजला
आसमंती हे  गुज पसरते …
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।

दोन ठिकाणी दोघे असता
भेटने  अवघे असे कठीण
रात्र सरते चांदण्या  संगती
उजाडे  दिवस तो कठीण ….
मनात तरी उमेद असते
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।

समोर समोर येण्याची ती
आतुरता  मोठी असे किती
थरथरत्या स्पर्शांची जादू
वाटे प्रतीक्षा संपवावी ती …
मन हेच बोलत असते
प्रेमात हे असेच होत असते
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।

नजरेस नजरे भिडता
ते सारेच क्षणात उमजे
या मनातले सारेच कसे
अलगद  त्या मनास समजे …
प्रेमात हे असेच होत असते
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।

भावना प्रीतीची सुरेखशी
जीवनास सुंदरता देते
प्रेम करावे मनापासुनी
हे नक्की अनुभवता येते …….
प्रेमात हे असेच होत असते
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।
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कविता - वाऱ्यावरती मन हे डोलते …!
-अरुण वि .देशपांडे - पुणे .
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Saturday, July 27, 2013

कविता - मी परतुनी आलो नसतो …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

आव्हरले होते दुनियेनॆ
लोकांनीही नाही उभे केले
मी माझा दूर निघालो होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

साथ -सोबती नव्हते कुणी
सवे आले ही नव्हते कुणी
एकटाच मी माझा निघालो होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

केलीस तू  माझी चवकशी
आस्थेने बोलले नव्हते कुणी
तू थांबवले अन मी थांबलो होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

प्रेमाच्या शब्दात असते
ताकद मोठी, हे ऐकून होतो
दिलास तू आवाज थांबलो होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

विश्वास हरवून बसलो होतो 
सापडून मला तो तूच दिला
नसता खूप दूर गेलो असतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

नशिबी योग असतात  हे
लोकांचे बोलणे ऐकत होतो
घडेल चांगले वाट पाहत होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥
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कविता - मी परतुनी आलो नसतो ।!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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Tuesday, July 2, 2013

कविता - जीवनगाणे वाटे जणू आळवावरचे पाणी ...!

कविता -जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे
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हे असे जीवनगाणे ,अशी जीवन कहाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥

मनात  जिद्द अनोखी ,वेडी तरी भोळीभाबडी
हारणे  कधी मंजूर नसते  ,जिंकण्याची आवडी
हे असे जीवनगाणे ,अशी जीवन कहाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥

विसरणार नाही कधी ,ती  तुझी  रे लढाई
घनघोर  आवेग तुझा , तू भासे एक शिपाई
हरने  अप्रिय तुजला  , मज प्रिय विजयकहाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥

वास्तवात नसे आता जरी अस्तित्व तुझे
स्मृतीत चिरंतन असते पूजन तुझे
आठव होतो तुझा अजुनी नयनी येते पाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥

हे असे जीवनगाणे ,अशी जीवन कहाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥
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कविता -  जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे
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