Wednesday, December 4, 2013

कविता- विसरणे केवळ कठीण …!

कविता- विसरणे केवळ कठीण …!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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मनात असते जे आपल्या
विसरणे केवळ कठीण …।!

बोलतो खूप काही नेहमी
ऐकतो  इतरांकडून  सदा
शब्दांचे भ्रम-विभ्रम  सारे
विसरणे केवळ कठीण …।!

सोबती  होते काही क्षणांचे
परी आठवणी  खोलवरी
 ते देणे त्यांचे आहे मनात
विसरणे केवळ कठीण …।!

मान मिरवणे सोपे  जरी
अपमान गिळने नसे  सोपे
जखमा हृदयातल्या  साऱ्या
विसरणे केवळ कठीण …।!

वागणे आपले चांगले
अपेक्षा सर्वांचीच  असते
उपेक्षा  आपली हर घडी
विसरणे केवळ कठीण …।!

मनात असते जे आपल्या
विसरणे केवळ कठीण …।!

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कविता- विसरणे केवळ कठीण …!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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Saturday, November 16, 2013

शेजारच्या आजी - बाल-कथा.

दै.प्रहार.दि.१५-११-२०१३ च्या अंकात प्रकाशित
"शेजारच्या आजी" या बाल-कथेची लिंक.
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http://epaper.prahaar.in/detail.php?cords=26,118,1138,1412&id=story2&pageno=http://epaper.prahaar.in/15112013/Mumbai/Suppl/Page6.jpg

Monday, November 11, 2013

कविता - अशी असते कविता ..!

कविता - अशी असते कविता …!
-अरुण वि देशपांडे - पुणे .
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मनास मन बोले आतुनी
नजर शब्दाविना बोलकी
सांगण्यास शब्दात हे सारे 
मदतीस येते मग कविता …!

अन्वयार्थ जीवनाचा सांगे
अनुभूतीची असे कविता
अंतरंगी असे  प्रत्येकाच्या
अंतर - प्रवाही ही कविता ………. !

माणूसपण माणसाचे
शब्दरूपात दावे कविता
भाव-भावनाचे कल्लोळ
म्हणजेच असते कविता ……. !

जीवनाच्या वाटचाली  साऱ्या
असोत किती त्या खडतर
काट्या-कुटयांच्या रस्त्यात मग 
हिरवळ  असते कविता ……।

मन-संवादी असते कविता
आत्मभान देते  ही  कविता
आपणच लिहावी आपली
स्वतहाची अशी एक कविता …. !
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कविता - अशी असते कविता ….!
-अरुण वि देशपांडे . पुणे .
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Friday, November 8, 2013

कविता- हळवी फुंकर ..|

ई-कविता -  संग्रह - "हळवी फुंकर …"
मधील शीर्षक कविता -
"घाल हळवी फुंकर ...|"
-अरुण वि .देशपांडे -पुणे
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आधीच जखमा
त्या ही खोलवर
तूच येउनि आता
घाल हळवी फुंकर ….!

घाव घाली जो तो
दुखऱ्या मनावर
तूच नाहीस परकी
घाल हळवी फुंकर ….!

होती संपली अशा
मन ही हरून गेले
तूच ओळखे  अंतर
घाल हळवी फुंकर ….!

असते ताकद खरी
प्रेमात दो मनांची
घाव भरून येण्या
घाल हळवी फुंकर ….!
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 ई- कविता संग्रह- "हळवी फुंकर "मधील
शीर्षक -कविता - 
घाल हळवी फुंकर ….!
-अरुण वि .देशपांडे -पुणे
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Sunday, October 27, 2013

कविता - शोध स्व-चा ...!

कविता - शोध स्व " चा ...!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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कसा शोध घ्यावा ?
आपल्या  स्व" -चा
सापडले वाटे तरी
हात राही रिकामा ….!

लढावी लागते रोज
जगण्याची लढाई
आपलीच आपल्याला
नसे सोबतीला कुणी …    !

ओळखण्यात स्वतःला
कमीच पडतो आम्ही
शोध घेत रहावा नेहमी
आपणच मग  स्व- चा  …।

कठीण नाही फारसे
सामरे जावे आव्हानाना
आत्मबळ जागवावे
जागवून  स्वतहाला ...!
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- कविता - शोध स्व्-चा ..!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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Monday, October 14, 2013

कविता- वाढदिवस आज तुझा ..!

कविता - वाढदिवस आज तुझा …!
-अरुण वि देशपांडे .- पुणे .
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दिवस आजचा प्रसन्नसा
वाढदिवस आज तुझा
शुभेच्छा देण्या आला बघ
 बघ हर एक मित्र तुझा ….!

 तारीफ करण्यात तुझी
 शब्द धन्यता नित मानिती
 स्नेहबंध मित्र-मैत्रिणीशी
  रेशीम बंध सारे  मानिती ….!

  स्मित विलसे मुखावरी
  आपुलकी तुझ्या अंतरी
  नजरेत स्निग्धता  दिसते
  जिव्हाळा तुझ्या शब्दांतरी …!

  भाग्य्वानास लाभे असे मैत्र
  लाभते  हे अंतरीचे नाते
  आहोत आम्हीही  भाग्यवान
  अक्षय राहावे  मैत्र  - नाते ….!
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-कविता - वाढदिवस आज तुझा …!
-अरुण वि देशपांडे .- पुणे .
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कविता - यश- अपयश ..!

कविता - यश - अपयश …!
-अरुण वि .देशपांडे - पुणे .
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अपयशच लागता हाती
मनास वेदना फार होती
मेहनत करून शेवटी
काहीच नाही लागत हाती …!

पराभवाचे  दुखः मनाला
सहन करावे  की लागते
अपमानाचे जहर सारे
चुपचाप गिळावे लागते ….!

यशाची गणिते ,गृहीतके
कुणी कुणा सांगत  नसतो
अपयशाचे माप मात्र जोतो
पदरी आपल्या टाकून जातो …!

यशाचा झगमगाट पाहणे
आवडे सर्वानाच नेहमी
अंधारी कुढत बसणे  हे
अपयशाच्या असे नशिबी ….!

आधाराचा शब्द आपुला
आपणहून जर  दिला
मिळेल उमेद त्या एकाला
 पुढचे पाउल टाकायला ….!
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कविता - यश - अपयश …!
-अरुण वि .देशपांडे - पुणे .
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Monday, September 30, 2013

कविता - कहाणी ...!

कविता - कहाणी …!
-अरुण वि .देशपांडे -पुणे
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ऐकुनी कहाणी आज माझी
डोळे  तुझे का भरुनी आले ?
सांगता सारे  आज तुजला
मन बघ हे  हलके झाले ….!

कहाणीत या छोट्याशा ,तसे
अलौकिक असे काही नाही
साध्या सुध्या जगण्यातली
लढाई सुद्धा जोरदार नाही …।

स्वप्न माझे होते तसे सोपे
त्यात होते सुंदरसे  खोपे
वाऱ्याने ते ही टिकले  नाही
ती स्वप्ने ही आता येत नाही …!

भेटले जे  पुन्हा नाही भेटले
काटेरी फुले देउनि ते गेले
निशाणी जखमांची त्यांच्या
मनी उमटवुनी सारे  गेले ….!

कातरवेळी  मन काहुरले
नाही ते विचार मनात आले
गलबलते  मन अबोलसे
डोळ्यांचे काठही भरून आले …।
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कविता - कहाणी …!
-अरुण वि .देशपांडे -पुणे
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Saturday, September 21, 2013

कविता - स्वप्न नावाचे एक खेळणे ...!

कविता -    स्वप्न नावाचे एक खेळणे .
-अरुण वि .देशपांडे - पुणे
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मन हिरमुसले किती ही
तरी पुन्हा ते खुलावे म्हणून
द्यावे लागते हातात त्याच्या
स्वप्न नावाचे एक खेळणे .
नाही तरी एक लहान मुल
दडलेले असतेच की मनात
त्याचे रुसेवे फुगवे जावे
म्हणून द्यावे लागते कधी
स्वप्न नावाचे एक खेळणे .
प्रेमाच्या सावल्या उमटून
जातात मनाच्या अंगणात
विसर पडतो वास्तवाचा
तेव्न्हा तर हवेच असते
स्वप्न नावाचे एक खेळणे .
स्वप्नातले जग असते खरे
आपल्या मनासारखे जगण्याचे
मनात मुरुलेल्या जुनाट वेदना
विसरून जाण्यास मदत करते
स्वप्न नावाचे एक खेळणे .
मनास ओळखावे आपण आपल्या
लाड त्याचेही कधी कधी करावे
गुंतणे त्याचे असे असते बरे
आपण असतो निवांत ,मन खेळते
स्वप्न नावाचे एक खेळणे .
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 कविता - स्वप्न नावाचे एक खेळणे . …!
-अरुण वि .देशपांडे -पुणे .
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Saturday, August 17, 2013

कविता - राजा -राणीची कहाणी ..!

कविता - राजा-राणीची कहाणी …!
 -अरुण वि . देशपांडे - पुणे .
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 स्वप्नाळू राजा -राणी
 स्वप्ने रोज  पहायची
 हरवून  त्यात जाती
 आपले हे  राजा- राणी ……।

 शब्द बोलती  ते दोघे 
 प्रेमाने ओथम्ब्लेले
 मने दोन ती अवघी
 प्रेमानेच भारलेले ……. !

 वसंत-प्रेमाचे दिवस
 हळू हळू ओसरले 
 भान जगण्याचे आले
 व्यवहार सुरु झाले ….…।

दाल-रोटीचा मेळ हा
कठीण खेळ भासला
नळाला नयेणारे पाणी
आणायचे डोळा पाणी …. !

नोकरी  दोघांची खरी
दोघांना ती फार प्यारी
कुणी  करायचे आता ?
वाद घाली राजाराणी ……!

समजदारी दुरावता
दुरावा तोही वाढला
दोन दिशा दोन चेहेरे
बसून राही राजा राणी ….!

आटून गेले प्रेम नि
अडली प्रेम - कहाणी
समजून घ्यावे एकमेका
विसरले की राजा -राणी ……. !
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कविता - राजा -राणीची कहाणी …!
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे .
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Monday, July 29, 2013

कविता - याला काय म्हणावे ..?

कविता - याला काय म्हणावे ..-?
-अरुण वि. देशपांडे -पुणे.
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मनातले साचून ठेवायचे  खोलवर ते
अन खोटे खोटे  रोजच  हसायचे
फसवत स्वतहाला जगवायचे
याला काय म्हणावे...?
दुसर्यांना  चांगले  म्हणणे  अवघड  वाटते
घेण्याच्या  बदल्यात , देणे  नकोसे वाटते
टिमकी स्वत:ची  वाजवणे आवडे  सदा
याला काय म्हणावे ..?
भोवतालचे  वाईट सारे ,मीच तेवढा  चांगला
जो दिसला त्यास  नेहमी वाईट ठरवला
सगळ्या ठिकाणी मी, आग्रह हा..
याला काय म्हणावे ?,
बोलण्यास शब्द असुनी ,अबोला का धरावा
सहवास असतांना ,त्यात  दुरावा  का यावा
क्षण आनंदाचे सोडून, शोक करतो पुन्हा
याला काय म्हणावे ?
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कविता - याला काय म्हणावे...!

लेख- काही असे काही तसे ...!

लेख- काहे असे काही तसे ....!

-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो- ९८५०१७७३४२

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आपण ठरवलेल्या खूप गोष्टी  करता करता  त्या
पूर्ण होण्याचे राहून जाते, आणि मनाला चुटपूट
लागून राहते. पुष्कळदा हाती घेतलेले एखादे कार्य
अर्धवट सोडून द्य्यावे लागते, कारण "आपल्या
स्वभावातील  धरसोड -वृत्ती ".
आरम्भशूर व्यक्ती" आपल्या कार्याचा आरंभ मोठा
गाजावाजा करून करतात, यामुळे अल्पकालीन
प्रसिद्द्धीही मिळून जाते, हा कार्यभाग सिद्ध झाल्या
नंतर मात्र " हाती घेतलेल्या कार्याचे काय झाले ? "
हा प्रश्न कुणी विचारीत सुद्धा नाही. थोडक्यात "साध्य
एक कार्याचे असते", ते झाले की बाकी सोडून द्यायचे .
असा सोयीस्कर मामला असतो.
उजाडलेला दिवस मावल्तान्ना ,उद्या येणाऱ्या दिवशी
काय करायचे ", हे आपण खुपदा "नुसते ठरवत असतो",
प्रत्यक्ष्य कृत्ती करण्याचे आपण सहजतेने सोडून देतो",
थोडक्यात - या वाचून काही अडलेले नाहीये न !,
यामुळे "आपल्या हातून काही होऊ शकत नाही ", याला
आपण स्वतः जबाबदार आहोत."
मग लोकांनी यशाची शिखरे सर केली तर ", आपल्या
नाराज होण्यालां काहीच अर्थ नसतो.
थोडक्यात- "कार्यमग्न रहाणे सदैव हिताचे असते.
आपले जीवनानुभव समृध्द करणारे वाक्य-प्रचार आपण नित्य ऐकत असतो.
"पालथ्या घड्यावर पाणी -- म्हणजे आपल्या प्रय्त्न्यांना येणारे निराशाजनक फळ.
पुष्कळ वेळा आपल्यावर "कुणाला काही समजावून सांगण्याची वेळ येते ", यात
अपेक्षा अशी असते की -निदान समजावून सांगितले तर डोक्यात काही  प्रकाश पडेल..!",
पण बहुतेक वेळी वाट्याला निराशाच येते .
याचे कारण असे  की- "" ज्यांना आपण हे सांगत असतो, त्यांनी त्यांच्या
 "मनाचे कान बंद करून ठेव्लेलेले  असतात.
दर्शनी कानांवरती पडणारे शब्द मना- पर्यंत पोहचतच नाहीत .
बरे "पालथ्या घड्यावर पाणी "- हा अनुभव सगळ्या वयोगटातील व्यक्तीकडून येतो .
साहजिकच ' जे समजावून सांगण्यास तयार असतात, त्यांच्या वाट्याला कधी कधी
दुरुत्तरे ऐकण्याची ही वेळ येते." त्यामुळे 'ज्या व्यक्ती शांत स्वभावाच्या आहेत ,अशांना
"निदान तुम्ही तरी थोडे सांगून बघा .." अशी विनंती केली जाते.
आपण सकाळी खूप छान समजावून सांगतो, समोरचा ऐकून ऐकल्या सारखे करतो आणि,
थोड्या वेळाने जाणवते " या माणसात तर काहीच बदल झालेला नाहीये ..!
यालाच वैतागून आपण म्हणतो- "सारे पालथ्या घड्यावर पाणी ..!
शाळेला जाताना घाई, मुलांना तयार करतांना घाई, ऑफिसला जातांना घाई, किचन मध्ये
तर निव्वळ हातघाई ची चौफेर लढाई , आणि मग धांदल , गोंधळ, मन स्थिर नाही.
मग काही किरकोळ कारणा वरून चिडचिड , राग-राग , तो राग मुलांच्या पाठीत धपाटे
देण्या पर्यंत जातो. कारण फक्त ५ मिनिटे अगोदर निघाले तरी चालते या हिशोबात ,
"फक्त ५ मिनिटे लेट...! होऊन जातो आणि लेट -मार्क,ला सामोरे जावे लागते.
हे सगळे टाळणे आपल्याच हाती आहे, "" घड्याळ १५ मिनिटे नुसते पुढे करून काय उपयोग नाही !"
त्यसाठी सगळी कामे ५ मिनिटे अगोदर पूर्ण करून शांतपणे बाकीचे कामे नीटपणे करू शकतो.
हे  कळत नाही  ? असे कसे  म्हणू  ?
फक्त कार्याची इच्छा नाहे, मनाला जी सवय लागली आहे, ती बदलणे अवगढ असते.म्हणून
हे असे होते. यावर खरे आज फक्त ५ मिनिटे वेळ काढा आणि चिंतन करा ,विचार करा ,
आणि उद्या पासून वेळापत्रक सुधारित करा, बघा" वेळ साधल्या मुळे "- आपले किती श्रम
वाचतात ते......!
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लेख- काही असे काही तसे ...!

कविता - आठवावे तव नाम हे गुरुराया ...||

कविता - आठवावे तव नाम ..!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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आठवावे तव नाम हे गुरुराया
शीणवटा  मनाचा घालवाया ...।। धृ ।।
रहाटगाडगे  हे रोजचे  चालू
रेटूनी रेटू नी  किती  हो थकलो
एकचित्त होऊनी  आता  बसलो
नामस्मरण तुमचे हो  कराया .....।। १ ।।
उपदेशाचे बोल  तुमचे अवघे
मनात हो साठवुनी  ठेवियाले
विपरीत वर्तमानात आजच्या
वागण्या  बल द्यावे गुरुराया .....।।२ ।।
किंमत  हरवुनी  बसली  माणसे
हरवून बसले  बोलते शब्दही
रंग बदलणे  बरे नव्हे कधीही
हे भान तुम्ही द्यावे गुरुराया ....।।३ ।।
आठवावे तव नाम हे गुरुराया
शीणवटा  मनाचा  घालवाया ...।। धृ..।।
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कविता - आठवावे तव  नाम हे गुरुराया ...।।
- अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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कविता - आपणच असावे आपले सोबती ..!

कविता - आपण असावे आपले  सोबती ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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रस्ते नवे  खुणावतात दरवेळी अन
कोमेजलेले मन पुन्हा  घेते भरारी
अर्धवट स्वप्ने  पुन्हा तरळू लागता
सुचते नवेसे  मग मन घेई भरारी ...!
खाच -खळगे  वाटचालीत  ते  म्हणुनी
वाटचाल आपली , अशी  कधी का थांबते ?
आशेच्या  आधारे मग  चालावे  आपण
मुकामाचे ठिकाण आपले  नक्की येते ...!
रस्ते चालताना  नेहमी  घोळ होतो
हम रस्ते  रुळलेले  ते , सोडूनी  सारे
भूलव्या  पायवाटेचा  खूप  मोह  होतो
अशा कठीण वेळी-क्षण  कसोटीचा  होतो  ...!
आपणच असावे  हो सोबती आपले
आपणच आपले ठरवावे  हेच खरे
लोकांचे एक बरे असते , होवो  काही ,
म्हणती ,  बघा ,  आमचेच झाले ना  खरे ...!
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कविता - आपण असावे आपले सोबती ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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कविता - मनाची समजूत ...!

कविता - मनाची  समजूत ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे .
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लोकांच्या गर्दीत चुकून एखादा  चेहेरा
आपला कुणी आहे असे वाटू लागते
व्यवहारी इतका निघतो तो , की
भावनेला किमत नसते  , हे पटू लागते ...।
का बरे असे वागत असतात आपलीच माणसे ?
मनाच्या आतली आहेत  ,हे सत्य  ना फारसे
शब्द्द आठावता त्यांचे ,किती खरे  ते  वाटले
कुठे हरवला भाव त्यातला ,मन  आज  शोधू  लागते ..।
आणा- भाका , त्या  शपथा  आणिक , किती विश्वास  होते
मर्जी फिरता  आता त्यांची , लगेच तोंड फिरवले होते
बदलते  रूप पाहुनी  आज त्यांचे ,मन भोवन्डले  होते..
मनाची समजूत घालण्या ,मित्रा  शब्द सापडत  नव्हते ...!
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कविता - मनाची समजूत ..!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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कविता - राहून गेले ना हो शेवटी....!

कविता- राहून गेले ना हो  शेवटी ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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   दिले क्षण ते आठवणींचे
   जपून ठेविले  मनात  ते
   शब्द त्यांचे  सोबत अजुनी
   सांगणे राहून गेले शेवटी ....!
    भेटला कुणी  देऊन गेला
    कधी काही घेऊनही  गेला
    बरे  की - वाईट  असे बोलणे
    राहून गेले  ना  हो शेवटी ....!
    फटकळ  जे  भेटले  त्यांचे
     काही  सांगायलाच  नको
     मने दुखवणे छंद त्यांचा
     टोकणे  राहून गेले  शेवटी ...!
     विचार केला सर्वांचा नेहमी
     काय वाटेल  ?प्रश्न नेहमी
      मला  काय वाटते  ! नेमके
      सांगणे राहून  गेले शेवटी .....!
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कविता - सांगणे  राहून गेले  न हो शेवटी ...!
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कविता - एक नाम साईराम ....!

कविता - एक नाम साईराम  ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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 एक  नाम  साईराम
 मनास देते  आराम
 घ्यावे  हो मनापासुनी
 सदा गोड  साई नाम ....।।
 साई  दर्शन सुखवी
 मनास  नित  शांतवी
 मनी  नाम आपोआप
 साईराम साईराम ........!!
 गुरुरूप साईराम
 मार्ग दावी साईराम
 शरण चरणी त्यांच्या
 कृपा करी  साईराम ......!!
 संसारी रमावे जरुर
 पडू  नये  हो  विसर
 रोज घ्यावे  गुरुनाम
 साईराम  साईराम .......।।
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कविता -एक नाम  साईराम .....।
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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कविता - ओझे ...!

कविता - ओझे .....!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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किती  मोकळे  आणि छान असते
मनावर नसते कशाचे ओझे ,
 उलट अवस्था  असते मनाची
वावरतो घेउनी एखादे  ओझे.........!  ।।१ ।।
काय सांगावे ,नसे अंदाज कधी
काय भावेल  , काय  रुचेल  याचा
कसरत असते ही  अवघड
असते मनावर खूप  हे ओझे ....!...।।२ ।।
कोण कशाचा कसा लावील अर्थ
चुकता सगळे,  निव्वळ  अनर्थ
शब्द बुड बुडे -हरवतो  अर्थ
असह्य  होते  मग सारे हे ओझे .....!..।। ३।।
परक्याला  मन समजू नये  हो ,
हे  समजण्या सारखे  एक वेळ
आपले  कुणी असे वागले  तर,
कसे वागवावे  अवगढ ओझे ........!   ।। ४ ।।
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कविता - ओझे ..!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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Sunday, July 28, 2013

बाल कविता - परिश्रमाचे रसाळ फळ ...!

 बाल कविता -
परिश्रमाचे रसाळ  फळ ...!
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मेहनत करिती  जे  नेहमी
फल मिळते त्यांनाच नेहमी
आळश्या बद्दल काय सांगावे
कार्या पासुनी दूर ते नेहमी ....!
कार्यास आरंभ करती जे
पण सिद्धीस  ना नेती कधी
मध्येच सोडून कार्यास देती
आरम्भशूर  हे असे नेहमी ....!
संयम - चिकाटी  आणि जिद्द
हे गुण असती  ज्यांच्या  जवळी
कार्यपूर्ती  होते  हातून त्यांच्या
परिश्रमाचे रसाळफळ मिळे  नेहमी ....!
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 बालकविता "-
परिश्रमाचे रसाळ फळ ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो- ९८५०१७७३४२.
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लेख -आपण असे असावे..!

लेख- आपण असे असावे .....!
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इतरांनी कसे असावे ?'" या प्रश्नाचे उत्तर देताना आपण अगदी मन-मोकळेपणाने
सांगत असतो  की ,"  कुणी कसे बोलावे, कसे वागावे, सारासार विचार कसा करावा, काय भले- आणि

काय वाईट ?
समोरच्या एखाद्या व्यक्तीला ."असे समजावून सांगण्याची  संधी आपण
सहसा सोडीत नाहीत , कारण "आपल्याला सांगणे आवडत असते.
पण -कधी "आपल्यावरच  कुणी सांगितलेले ऐकण्याची वेळ आली तर ?,
मग मात्र -आपण आपल्या सोयीचे जे आहे,जेव्हढे आहे", तेच  ऐकत असतो .
पण ऐकत  सगळे मात्र आहोत", असे भासवत असतो.
मित्रांनो " आपण आपल्याला फसवत आहोत असे वाटत नाही का ?
 आता आपल्या घरातील मुले आणि त्यांचे आई आणि बाबा

  यांच्यात मनमोकळा असा सुसंवाद    
चालू असेल तर घरातील वातावरण प्रसन्ना असणार ,
निर्मल भावना, मोकळ्या अपेक्षा ,परस्पर जिव्हाळा ,
आणि नात्यातील ओढ, ही कुटुंब -जीवनाची सुखी लक्षणे आहेत.
घरातील वातावरण नेहमी मन-मोकळे ,सुखद असायला हवे आहे आणि ,
ते आनंदी आणि हसरे -खेळकर ठेवणे" सर्वांचे काम असते.
आपण एकमेकांचे आहोत" ही सुखद भावना नातेबंध
अधिक पक्के करणारी  असते.
या साठी आई-बाबांनी मुलांसाठी वेळ द्यावा , आणि मुलांनी
आपल्या आई-बाबांच्या प्रेमावर विश्वास ठेवावा ,
म्हणजे "घर" आणि घरातील माणसे सुखी आणि आनंदी असतील
हे सांगण्याची सुद्धा गरज नाही.

वरील विवेचनावरून ,तुम्ही म्हणाल ,"आपण असे असावे ",
हे सांगायला काय जाते, रोजच्या जगण्याच्या कटकटी इतक्या
आहेत की - कुणाजवळ वेळ आहे ?
पण- खरेच विचार तर करून पहा, - आपल्या वागण्यामुळे इतराना
आनंद होण्या ऐवजी "त्रास होत असेल" तर काय उपयोगाचे ?
एकमेकाच्या सहवासाने प्रेम वाटावयास पाहिजे. आणि आपले बोलणे,
आपले शब्द नेहमी मनाला सुखावणारे असतील तर ,लोकांना ही बोलण्यास
नक्कीच आनंद वाटेल,नाहीत तर "विसंवादाची मोठी दरी निर्माण झाली तर ",
दुरावा वाटणारच.
तेव्न्हा चांगले झाले नाही कुणाचे -हरकत नाही, वाईट मात्र कधी होऊ नये ,"
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लेख- आपण असे असावे
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो-९८५०१७७३४२
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कविता- खूप वाईट वाटते तेंव्हा ...!

कविता -    खूप वाईट वाटते तेंव्हा ...!.!

-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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आपले  म्हणवणारे  जेंव्हा
वाऱ्याप्रमाणे बदलून दिशा
समोरून जातात हे जेंव्हा
खूप वाईट वाटते  तेंव्हा ...!

काय गृहिते असतील ? या
स्व-केंद्रित  माणसांची ,ज्यांना
कधी  पर्वा नसते  कुणाची ..

भावना तुडवुनी जाती
खूप वाईट वाटते  तेंव्हा ...!

हळुवार ,प्रेम भावना यांना

किंमत नसते यांच्या लेखी

पैसा असतो  यांचा  सोबती

नसतो दुसरा कुणी सोबती
खूप वाईट वाटते तेंव्हा.......।।

माणसे कामा येती शेवटी

माहित नसेल का हे यांना

तरी लोटुनी देती माणसाना
खूप वाईट वाटते तेंव्हा ....।।
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कविता - खूप वाईट वाटते तेंव्हा ....!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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लेख- प्रवास-

लेख- प्रवास ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो- ९८५०१७७३४२

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बहुतांश वेळा प्रवास हा काही बघण्या साठी  केलेला असतो. कधी एखादे स्थळ, कधी प्रसिद्ध वास्तू,
कधी निसर्ग-सानिध्यात  रहाण्यासाठी  आपण प्रवास करीत असतो.
या प्रवासातील अनुभव आपल्याला जीवनाकडे  पाहण्याची नवे दृष्टी  देऊन जातात , आणि आपण
अधिक अनुभवसंपन्न  होऊन जातो, या साठी प्रवास महत्वाचा आहे.
प्रवास म्हणजे एका ठीकानाहून दुसर्या ठिकाणी जाणे ", एवढाच नाही. प्रवास ", म्हणजे अनेक
अनुभव घेत -घेत स्व:ताहात  बदल घडून येण्याची प्रक्रिया आहे.
सोबतीचे महत्व, आणि सह-प्रवासी  यांचे असणे किती गरजेचे आहे "ही गोष्ट प्रवासामुळे  कळते.,
तसे म्हटले तर आपले  जगणे हा ही एक प्रवासच असतो.".
म्हणून तर या प्रवासाला "आनंद -यात्रा" असे म्हणावेसे वाटते .
या प्रवासातील रस्ते कसे असतात पहा ...-
" कधी सरळ कधी फाकडा
   कधी  तिरका कधी वाकडा
  साथ सावली सोबत मिळता
  सुखकर झाला सारा रस्ता......||
असा ही प्रवास आपण करतो खरे , पण तो एकट्याचा प्रवास
कधीच नसतो. अनेकजण सहप्रवासी म्हणून या वाटेवर सोबत
करतात ," या माणसांना जाणून घेण्याचा प्रवास", हा देखील काही
कमी महत्वाचा प्रवास नसतो.
जीवनाच्या वाटचालीत जे अनुभव येतात, ते हे अनुभव आपली
शिदोरी असते. ही शिदोरी पाठी घेऊन आपण पुढचा सारा प्रवास
अधिक सजगपणे करीत असतो.
म्हणून तर एक व्यक्ती म्हणून आपली जी जडण-घडण " होत असते ,हे घडणे
म्हणजे देखील एका आंतर-बाह्य  अशा बदलाचा एक प्रवासच असतो.".
अशा प्रवासात आपल्या विचारांना नवी दिशा मिळते, जाणीवांना नवे धुमारे
फुटू लागतात , जुन्या धारणा बदलून , नव्या धारणा स्वीकारण्याची मनाची
तयारी होऊ  लागते.
आपण एका जागी स्थिर राहिलोत की , एक जडशीळ  अवस्था येउन  जाते ,
अशा वेळी  बदल घडवून आणू शकणारा असा  "प्रवाही -प्रवास", आपण
करायलाच हवा. यामुळे आपल्या आयुष्याला आलेली "मरगळ ", नाहीशी
होऊन, एक ताजेपणा नक्की  येतो.
पहा अनुभव घेऊन.....!
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लेख- प्रवास ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
मो- ९८५०१७७३४२

कविता - थांबवा समर्था अवघा हा गोंधळ ....!

कविता - थांबवा समर्था अवघा हा गोंधळ......!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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सद्गुरु समर्था आहे तुम्हास
चिंता  साऱ्या  विश्वाची सकळ
बघा जरा माझ्या कडेही,  झाला
मनाचे ठायी  अवघा हा  गोंधळ .....!
कोण आपला ,कोण नाही, कळेना
काय करावे , काय नाही , सुचेना
मिळाले जरी थोडे , हवे  पुष्कळ
मनाचे ठायी  अवघा हा गोंधळ ........!
अधीर मनाचे कौतुक आम्हा भारी
करतो याच्यासाठी  आम्ही  लाचारी
शांत नसे कधी ,सदा करी वळवळ
थांबवा समर्था अवघा हा गोंधळ .........!
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कविता - थांबवा समर्था अवघा  हा गोंधळ ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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लेख- जाणीव ..!

लेख- जाणीव
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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ज्याच्या मनाला जाण आहे ,त्यालाच जाणीव होऊ शकते .जो दुसर्याची मने
आणि त्यांच्या  मनातील ओळखू शकतो, त्यालाच मनातले सारे काही जाणून घेता येते.
पण हे सारे सोपे आहे ",असे मात्र मुळीच नाही. या साठी आपले मन,मोठे असायला हवे आहे.
स्वतहा  पेक्षा अगोदर इतरांच्या मनांचा  विचार  करण्याची सवय असायला हवी . तरच
आपण स्वतः पलीकडले  असे काही पाहू शकतो, त्या  बद्दल  विचार करू शकतो. अशा
स्वभावाची व्यक्ती आपल्या सहवासात आल्यावर ,त्याच्या बद्दल आलेल्या अनुभवावरून
सहजतेने  बोलून जातो."खरेच- जाणीव आहे बरे का याला ..!.
सुखाच्या वेळे पेक्षा "- संकट प्रसंगी , अडचणीच्या वेळी ,निराशेच्या चक्रात सापडल्यावरती
मानसला माणसाचे गरज असते. कुणी आपली अडचण समजून घ्यावी , दुक्ख समजून घ्यावे ,
संकट आले आहे-,त्यातून बाहेर पडण्यासाठी मदत करावी अशी अपेक्षा असते , आणि ती देखील
समजून घेऊन, न- सांगता." सांगितल्यावर मग काय उपयोग.?
म्हणजे एक्नुच " जाणीवेचा हा खेळ".असा तसा सोपा नाही,
समज यायला लागते ,तसे आपल्या जाणीवानचा विस्तार होऊ लागतो.
आणि या उमजण्याची -समजण्याची  पातळी वरवरची  असेल तर  आपण
काही उपयोगाचे ठरत नाही. आणि हे" पातळी जर वरची " असेल तर, आपल्याला
लोकांना समजून घेणे " हे जबाबदारीचे काम स्वीकारावे लागते..
वास्तविक ही  जबाबदारी  जोखमिचे  काम असते,म्हणजे - एक तर लोकांना समजून घ्या,
त्यांच्या मनाप्रमाणे करून द्या," ते खुश होतीलच याचे खात्री मात्र नसते.
पण  असे "जाणीव असलेले , जबाबदार - माणसे ", आपल्या भोवती असतात म्हणून तर
भांबावून गेलेल्या , गोंधळून  गेलेल्या  अनेकांना या जाणीवेच्या -जबाबदार माणसांची मदत होते.
जाणिवेचे प्रकार वेगवेगळ्या वेळी वेगवेगळे असतात , त्यामुळे  अनेक
अवधाने ", पाळावे लागतात. तारतम्य  असणे, गांभीर्य असणे ,प्रसंगावधान असणे,
विचारांची परिपक्वता असणे, निर्णय -क्षमता  असणे", असे  अनेक गुण- विशेष
असणारी व्यक्ती  सहाजिकच एक जबाबदार माणूस म्हणून ओळखली जाते.
हे सगळे गुण काय आणि या पैकी  काहे थोडे गुण -थोड्या प्रमाणात जरी आपलयात
असले तरी ,आपण खूप काही करू शकतो.
स्वतःचे जगणे जगतांना आपण इतरांसाठी जगायचे असते ", ही
जाणीव "आपल्या मनाला झाली तर, आपले जीवन अधिक अर्थपूर्ण  होईल.
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लेख- जाणीव ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
मो. ९८५०१७७३४२.
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लेख- एक प्रवास आठवनीतला...!

लेख- एक प्रवास -आठवणीतला "....!
-अरुण वी.देशपांडे -पुणे.
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माझ्या आठवणीतला एक प्रवास -त्यातील ही आठवण,                                                                      ,
नोकरीच्या निमित्ताने करीत असलेल्या "ये-जा - daily -up -down " या
प्रकारच्या प्रवासातील आहे. त्याला आता सुमारे ३५ वर्षे होऊन गेली आहेत ,
१९७८ मधील हा प्रसंग आहे- त्या वेळी  मी स्टेट बँक आफ हैद्राबाद मधल नोकरीच्या
निमित्ताने काही वर्ष कर्नाटक -प्रांतात होतो.
बीदर जिल्ह्यातील  "औराद -संतपुर  किव्ना  औराद बार्हाली ,या गावी  मी होतो.
दर शनिवारी -रविवारी , आम्ही सुट्टी साठी  म्हणून उदगीर मुकामी असायचो.
औराद हे मुख्य रस्त्यावरचे गाव नव्हते. अगदी आतल्या बाजूला असलेले एक तालुकावजा
छोटसे  गाव. सुमारे ४२ कि.मी  अंतरावर  चारी दिशांना  अस्लेली  मोठी  गावे म्हणजे,
बीदर, देगलूर, आणि उदगीर ,
या ठिकाण हून आड रस्त्याने जाणाऱ्या  महाराष्ट्र एसटी  बस,
या आड -वळणाच्या गावाला घेऊन जायच्या . एकम्बा  हे गाव " महाराष्ट्र एकीकरण समितीचे ",
कार्यकर्ते असलेले गाव, आणि औराद गावात सुद्धा मराठी बोलणारे खूप लोक होते. त्यामुळे
मला कानडी भाषा येत नाही", हे सांगण्याचे कधीच गरज पडली नाही.
उद्गीर् हून सकाळी  एक बस औराद साठी -"उदगीर मार्गे -एकम्बा -औराद " अशी ही बस होती.  दुसरी बस ,
त्यानंतर एकदम दुपारीच  बस असे ,
दर सोमवारी
हे बस मला औराद्ला घेऊन जायची.
त्यावेळी  बिदर जिल्ह्यातील शाळांचे पगार बँके  मार्फत होत असायचे. सहाजिकच या बस मध्ये
आजूबाजूच्या खेड्यातील शिक्षक  हमखास असायचे , नावानिशी  ओलख नसली तरी  "हे सर" व इतर अनेक प्रवासी
अनोळखी नसायचे. आणि त्यंना ही   मी  म्हणजे हैद्राबाद -"बँकेतले साहेब - ", हे माहितीचे होते.
कारण त्यांचे पेमेंट दरमहा आमच्या बँकेतून होत असायचे ,आणि पगाराच्या दिवसात मी हंगामी -हेड- क्लार्क असे, व,
माझ्या हातून पेमेंट  पास होत असायचे.सहाजिकच चेहेरे ओलख  नक्कीच होती.
दिवाळीच्या सणासुदीचे  दिवस असावेत ते, पगार जमा होण्याचा दिवस होता. आणि आम्ही ज्या
बसने  प्रवास करीत होतो, त्या रस्त्याने जात असणारी ती एकमेव बस होती, पाठी मागून येणारी नाही,
आणि साम्रोरून सुद्धा बस येण्याची त्या वेळी अजिबात श्यक्यता नव्हती.
प्रवासी भर-भरून  असलेली  ही बस  नेमकी  त्यादिवशी  पक्न्चर  झाली, आणि नंतर यांत्रिक -कारणाने
बिघडून बंद पडली. अशा वेळी मदत मिळण्याची काही  एक श्यक्यता नव्हती .
काय करावे सुचेना , मला ११ वाजेपर्यंत बँकेत  असणे आवश्यक होते, पगराचा दिवस", किती गर्दी असेल?
आणि नियमित बडे बाबू असतांना ही, पगाराच्या आठवड्यात मेनेजर साहेब मला  टेम्प - हेड-क्लार्क -करायचे.
,,नेमक्या आजच्या दिवशी मी  वेळेवर आलेलो  नाही. गर्दीच्या दिवशी  कामाच्या दिवशी दांडी मारली "!
 अशी सोयीस्कर कल्पना करून घेतली असेल सर्वांनी.  त्यामुळे  मी अधिक खजील होऊन गेलो होतो.
 इकडे रस्त्यात  बंद पडलेल्या आमच्या बसच्या बाबतीत दुपारचे १२ वाजून गेले तरी  काही घडले नव्हते,
आणि घडणार ही नव्हते.
अशा वेळी सर्वांच्या मनात एकच विचार -आपण जाई पर्यंत बँक बंद होणार ,मग
दिवाळीच्या सणाचा पगार कसा उचलणार ?, सन साजरा कसा करणार. जणू आनंद मावळून गेला होता.
माझ्या सोबत असलेले  अनेक जन मला ही  म्हणाले " साहेब, आपल्याला आता पायी चालत जाण्या शिवाय दुसरा पर्याय नाही.कारण या वेळी समोरून कोणती गाडी येणारी नाही, ना पाठी मागून कोणती गाडी . तेव्न्हा निघा पायी पायीच.
  असून असून हे ...!, १४ कि.मी अंतर आहे, चला चालत जाऊ या ,!
एकम्बा पाटी वरून पुढे  देगलूर-औराद  ही बस ही मिळू शकेल . आणि आपण , लवकरात लवकर  औराद्ला पोन्चुत .,
आणि  मग,
बँकेत  जाउन पगार उचलू. आपले सोबत बेन्केचे  साहेब आहेत, ते सांगतील मेनेजर  साहेबाला आणि केशियर
साहेबाला , मग दिवाळीचा पगार नक्की मिळेल आपल्याला .
आणि  खरेच की....
बस मधील पायी चालू शकणारे आम्ही ३०-४० जन  पायी-पायी  निघालो, १४ किलो मीटर चे अंतर आम्ही पार
केले , एकम्बा पातीवर  एस ती  च्या साहेबांना -" बस खराब झाली ,घेऊन या ,असा निरोप दिला"
, आणि  पाटी वर उभ्या असलेल्या
एका ट्रक  मध्ये बसून आम्ही  २.३० च्या सुमरास औराद ला पोंचलो,
आमचा घोळका बँकेत शिरला ,माझ्या सोबत आणखी खूपजन आलेले पाहून , आमचा स्टाफ आणि साहेब
परेशान झाले.
शांत झाल्यावर  मी आणि माझ्या सोबतच्या शिक्षक -मंडळीनी  काय प्रकार झाला , आम्ही १४ किमी सलग
पायी चलत आलोत हे ही सांगितले. आणि हे केवळ दिवाळी जवळ आहे, सणाचा पगार मिळावा ",
म्हणून आम्ही विनंती करतो की, पेमेंट  ची वेळ संपून गेली असली तरी, आजचे कारण लक्षात घेऊन ,
आम्हाला मदत करावी.,आमचा पगार जमा करून -लगेच पैसे द्यावेत, कारण उद्या पासून शाळांना सुट्या आहेत.
 एव्हाना बँकेतील कामे आटोपली होती.,रोख -रकमांचे व्यवहार बंद झाले होते ,अशा वेळी हे अचानक आलेले  काम
पाहून -
" एकट्याने एवढे काम कसे करणार ?, काशियर साहेब म्हणाले"
, मी त्यांना म्हटले, तुम्ही आणि
मोठे साहेब दोघे  पैसे द्या, बाकीची पोस्टिंग -पासिंग मी एकटा  करतो, काही  लोड नाही होणार या कामाचा .
 नेमक्या कामाच्या दिवशी आणि कामाच्या वेळी ",माझ्या कडून उशीर झाल्याची भरपाई  मी करण्याचा प्रयत्न  केला .
 " सगळी गडबड पाहून इतर स्टाफ ही पुढे आला ," आणि आम्ही सगळ्यांनी मिळून  सर्व शिक्षक -वृंदाचे पगार
त्यांच्या खात्यात जमा केले ,आणि नंतर  त्यांचे  चेक पोस्त करून पेमेंट करून "कुणालाच  निराश
केले नाही",
बँकेतील आम्ही सर्व स्टाफ ने  केलेल्या सामुदायिक मदत कार्यामुळे  डोंगरा एवढी हे अचानक करावे लागणारे काम
अगदी  सह्जेतेने
पार पडले. मनेजर साहेब. हेड -केशियार साहेब, दोघांना ही समाधान वाटले. योग्य वेळी कस्टमर खुश झालेत या गोष्टीचे.
 खिशात पगाराचे पैसे  पडल्यावर ", चालून थकलेल्या  त्या माणसांच्या चेहेर्यावर आता  समाधानाचे हसू पसरले  होते.
जातांना ते म्हणाले" बडे बाबू   आज तुम्ही बस मध्ये आमच्या सोबत होतात ,हे बरेच झाले म्हणायचे.
तुम्ही खरेच बडे काम केले आहे", उद्या पासून आम्हाला  सुट्या ,आपापल्या गावी जाणार आता .

 आमच्या घरात दिवाळी साजरी होईल, केवळ तुमच्या आजच्या योग्य वेळी केलेल्या  मदतीमुळे."
मित्रांनी , दर दिवाळीला मला हा प्रवास आणि तो प्रसंग आठवतो, आणि आमच्या मदतीमुळे
त्यांच्या चेहेर्यावर उमटलेले समाधानाचे हसू आठवते.
आज २०१३ साली  सुद्धा  ही आठवन ,
मला एका प्रवासाने दिलेल्या अनुभवाचे समाधान देऊन जाते.
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-अरुण वी.देशपांडे -पुणे.
मो- ९८५०१७७३४२.
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लेख- यशाचे वाटेकरी ....!

लेख- यशाचे वाटेकरी .!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
मो- ९८५०१७७३४२
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 यश हे यशच असते ", यशाची धुंदी भल्या -भल्यांना चढत जाते , ती इतकी की-
 त्यांचे हात गगनाला भिडतात आणि पाय जमिनीवर टेकत नसतात . तुम्ही टीम-लीडर ", असतांना
जे यश मिळते , त्यात  तुमच्या नेतृत्व- कौशल्याचा वाटा निश्चितच असतो .
 जी लढाई तुम्ही जिंकलेली असते , संघ- नायक ", म्हणून जे यश मिळवता ,ते निर्भेळ असतेच ,
पण या यशाची गोडी चाखत अस्तन्ना  , जर - :या यशाचे श्रेय माझ्या एकट्याचेच आहे", असे सांगत
मिरुवू लागलात तर, मात्र या यशाचे गोडी नक्कीच कमी होऊन जाईल .
, कारण आपण एकद्त्याने
काहीच करू शकत नाही.तसेच आपल्या उणीवा आणि मर्यादा यांची भान ठेवून, जे आपल्या कार्यात
सहभागी होऊन  - "यशाचे माप आपल्या पदरात टाकतात ", ते देखील  या "यशाचे वाटेकरी
आहेत,हे विसरून कसे चालेल.?
आपल्या मना सारखे झाले तर ", ,या यशाचे शिल्पकार
आपण स्वत:च असतो. आणि या सोबत -
- आपली बुद्धिमत्ता , आपले कौशल्य ,क्षमता -
-पात्रता , अष्टपैलुत्व ,व्यासंग -,अभ्यास ,परिश्रम ,इतके  गुण-
-विशेष ", आपल्या व्यक्तिमत्वात ठासून भरलेले आहेत", असे
अगदी मुक्तकंठाने सांगितले जाते.अशा वेळी "मदत करणार्या आपल्या
माणसांचा सुद्धा आपल्याला विसर पडतो.
 अशा यशाच्या
प्रसंगी -आपण स्वतहा-शिवाय ", इतर काही लक्षात ही ठेवत नाहीत.
खर म्हणजे आपल्या यशात अनेकजण प्रत्यक्ष्य -अप्रत्यक्ष्य रूपाने सहभागी असतात.
त्यांच्या मदती शिवाय आपण हाती घेतलेले कार्य पार पाडू शकलो नसतो ," ही जाणीव
ठवून - आपण यशचे श्रेय मन्- मोकळेपनाणे  सर्वांना  द्यायला हवे आहे.
आणि  या उलट  "मनाजोगते नाही झाले तर ?-
, मग मात्र   या  अपयशाचे खापर सोयीस्करपणे  स्वतःला सोडून ,
इतर सर्वांच्या माथी फोडून  आपण मोकळे  होतो.
त्यावेळी आपले सगळे गुण-विशेष "नाही-से ",होतात . एखादे  वेळी ,यश मिळण्या ऐवजी
अपयश पडते .आणि पराकोटीचे दुखः सहन करावे लागते
आपण  "अपयशाचे मानकरी " झालो आहोत ही कल्पना सुद्धा अगदी
असह्य  होऊन जाते .आणि मग अनेकविध कारणे सांगून "हे अपयश"
का आले ही सांगण्यात शक्ती खर्च करावी लागते.
अर्थातच सभोवतालचे घटक या अपयशाचे कारण ठरतात
,मुख्य म्हणजे-- प्रतिकूल परिस्थिती ", ही खलनायिका असते.
 वाशिलेबाजी, कम्पुगिरी , प्रामाणिक माणसांची कदर इथे होत नाही",
 असे असेल तर "माझ्या सारख्याला इथे यश मिळेल ?, आशा करणे म्हणजे
 वेडेपण ", असा स्व- साक्ष्त्कार होतो.
 आपला तो बाब्या -दुसर्याचे कार्टे ", हा सुलभ -न्याय आपण या वेळी लावतो.
 तरी पण लोकाना -पब्लिकला "तुम्ही नेमके कसे आहात ", याची पूर्ण कल्पना
असते. तुमचे यश कसे,? आणि  तुम्हाला अपयश का? आले , हे त्यानी पूर्ण जोखलेले असते.
म्हणूनच मना सारखे झाले "-म्हणून हुरळून  जाउन नये. आपया यशात सहभागी असलेल्या
सर्वांप्रती ऋणी  असावे.
आणि मना सारखे झाले नाही ", या साठी स्वतहाच्या कमीपणाला जबादार ठरवून ,नव्याने
सुरुवात करावी.
आपल्या यशाचे श्रेय कधीच एकट्याचे नसते. त्याचे वाटेकरी असतात ,मुक्तमनाने ते त्यांना जरूर द्यावे..
मग, बघा ,तुमच्या मागे उभे रहाणारे "तुमचे दोस्त"..खूप आहेत.
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लेख-  यशाचे वाटेकरी .....!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
मो- ९८५०१७७३४२

कविता- रहावत नाही म्हणून सांगतो ...!

कविता - रहावत नाही म्हणून सांगतो...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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   प्रेम करतो तुझ्यावर मी
   सांगायचे  मजला  असते
   ठरवतो मनात  कितीदा
   ते मनातच राहून जाते ...!
   महती प्रेमाची  काय सांगणे
   कवी - शायारांचे हेच गाणे
   प्रेमाचा स्पर्श मनास होता
   सुंदर मनाचा माणूस  होणे ....!
   नजरेतून बोलता  मी तुला
   समजत  असेल ना तुला
   बदलून जाते सारे काही
   अर्थ प्रेमाचा कळे मनाला ....!
   रोज उगवतो दिवस नवा
   आला तसाच निघुनी जातो
   प्रेम करतो तुझ्यावर मी
   रहावत नाही म्हणून सांगतो ....!
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कविता - रहावत नाही म्हणून सांगतो ...!
- अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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कविता - रात्र पावसाळी ही ..!

कविता- रात्र पावसाळी ही …।
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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लागली  धार आसवांची
कशी  ती थांबवू आता
श्रावणझड  बाहेर ती
सोबतीस माझ्या आता …।

रात्र पावसाळी काय करू
कोसळेल रातभर पाऊस
मनास आता कसे आवरू ?
सावरण्यास यावेस आता …।

विरहाची रागिणी ओठावरी
आठवण दाटते या अंतरी
दोन मनातले अंतर सारे
हे संपवण्या यावेस तू आता ….।
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कविता- रात्र पावसाळी ही …।
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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कविता - तूच तुला ओळखले नाही...!

कविता -  तूच तुला ओळखले नाही …।
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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तूच तुला ओळखले नाही
आवाज तुझा ऐकला नाही
खूप करता येते तुजला
हेच पुरते माहित नाही …!

आव्हाने स्वीकारावीत सदा
यात खरी कसोटी असते
उमेद हरवूनी बसणे
कधीच  ते शोभत नसते ……

मनाच्या ठायी असते खूप
दुर्दम्य अशी इच्छाशक्ती
जागवावी आपणही तिला
मदत घ्यावी ती  यथाशक्ती ….।

अजुनी वेळ गेलेली नाही
निसटूनी काही गेले नाही
उठ झटकुनी टाक निराशा
यश तुझेच , कुठे गेले नाही ….।
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कविता - तूच तुला ओळखले नाही …।
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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कविता - बहुत मिळाले तरी ..!-

कविता - बहुत मिळाले  तरी …।
-अरुण वि. देशपांडे -पुणे
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माणसे इतकी खरी
नाना त्यांच्या परी
हाव-अधिक अंतरी
बहुत मिळाले तरी …।

चित्ती ते समाधान
मनात तो संतोष
भागत नाही यावरी
बहुत  मिळाले तरी …।

संत माणसे सांगती
मनास नित्य सावरी
वाटे मिळावे अजुनी
बहुत मिळाले तरी ….।
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कविता - बहुत मिळाले तरी …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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कविता - जगणे आपुले राजा ..!

कविता - जगणे आपुले राजा …।
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे
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ताण- तणाव  भोवती
भाम्बावूनी जाते मन
थकून जाता शरीर
कोमेजून जाते मन …. ।

नाही चुकत रे कुणा
जगण्याची ही लढाई
सेनापती नसे यात
सारे लढणारे शिपाई …!

आले गेले ते  दिवस
विसरे ती हौस मौज
निरास झाले जगणे
सूर नसलेले  गाणे….

म्हणून का सोडायचे
जगणे आपले  राजा
हिम्मत  हरू  नकोस
आयुष्य फुलव राजा ……  ।
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कविता - जगणे आपुले राजा …।
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे .
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कविता - साई तुमच्या दरबारी ...!

कविता - साई तुमच्या दरबारी ….!
  -अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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   मानाने जगणे कठीण
   त्यात जीव झाला घाबरा
-  तुम्हीच यालाहो  सावरा
   घेउनी गाऱ्हाणे भक्त आला
   साई  तुमच्या दरबारी ….॥

    शब्दात फसवती नित्य
    गोंधळून सदा टाकिती
    व्यवहारी घालिती टोप्या
    याला तुम्ही आवर घाला …॥

    सद्गुरु आधार तुमचा
    आमच्या मनास  आहे
    म्हणून मन निर्धास्त आहे
    कृपा असावी इच्छा आहे …॥

    साई सद्गुरु तुम्हीच
    भक्तांचे कल्याण करिते
    अंधार झाला भोवती हा
    दूर करावा हा आजला
    घेउनी गाऱ्हाणे भक्त आला
    साई  तुमच्या दरबारी ….॥
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-   कविता - साई तुमच्या दरबारी ….!
    -अरुण वि .देशपांडे - पुणे
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कविता - गळक्या ओंज्ळीचे हात आपले ..!

कविता -  गळक्या ओंजळीचे हात आपले
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे
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गळक्या ओंजळीचे हात आपले
त्यात कधीही काहीच ना मावले
जेजे मनाला कधी कधी भावले
नशिबास मात्र कधी ना भावले ……. !

भोवताली भरलेले आनंद मेळे
गेलेला  त्यात अलगद  मिसळे
फिरकलो चकुन तिकडे जेव्न्हां
दरवाजे उघडे,  बंद केले गेले
जेजे मनाला कधी कधी भावले
नशिबास मात्र कधी ना भावले ……. !

 पाहण्या  सुंदरतेचे बाग- बगीचे
 मन असे सदाचे आसुसलेले
 तुच्छतेच्या नजरेशी नजर मिळता
 मन शेवटी हिरमुसन गेले ………. !

 गळक्या ओंजळीचे हात आपले
 त्यात कधीही काहीच ना मावले ……. !
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कविता - गळक्या ओंजळीचे हात आपले …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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लेख- संयमशील श्रोता आणि प्रेक्षक ..!

लेख- संयमशील श्रोता आणि प्रेक्षक  ...!
-अरुण वि..देशपांडे  -पुणे.
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, या दोन्ही अवस्था आपल्या मनाशी  आणि मनाच्या अवस्थेशी
संबंधित आहेत. एखादी  गोष्ट  वेळेवर न केल्याने , किंवा एखादी प्रतिक्रिया
सांगण्याचे अगर व्यक्त करण्याचे मनात असूनही राहून जाते"  ",
अशा वेळी  मनाला विलक्षण अशी "रुखरुख लागून राहते ", आणि नंतर
एकांती असता मनाला मोठीच "हुरहूर लागून रहाते. ".कारण आपण एक संयमशील श्रोता आणि
प्रेक्षक होऊ शकत नाहीत .
खरे म्हणजे हे दोन्ही आपण टाळू शकतो, त्यासाठी  परस्पर उत्तम असा संवाद हवा,
आणि  समोरच्या व्यक्तीची भावना " समजंस -श्रोता  होऊन ऐकण्याची आपली  तयारी हवी."
बहुतेक वेळा - आपण ऐकून घेण्याच्या बाजूने नसतोच. आणि पुष्कळांना तर नेहमी
"आपलेच घोडे पुढे पुढे दामटण्याची  दांडगी हौस  असते".
 या अशा सवयीच्या  लोकांनी नीटपणे ऐकून घेतलेले नसते, महत्वाचा भाग राहून जातो,
आणि मग योग्य प्रतिसादा  अभावी  भावना पोचत नाहीत.,सांगणारी व्यक्ती नाराज
होऊन निघून जाते. थोड्यावेळाने  मग, आपणच मनाशी म्हणतो-
अरे- तो असे म्हटला काय..!
चुकलेच जरा ..! आणि मग मनाला विलक्षण टोचणी लागते, ही रुखरुख ", अपराधीपणाची
जाणीव  फार त्रासदायक असते.
कार्य परत्वे आपण वेळोवेळी  निरनिराळ्या लोकांशी संपर्कात येतो - त्या वेळी आपल्या स्वभावाची
एक प्रकारे परीक्षाच असते. कोण काय बोलते आहे ? " या कडे लक्ष द्यावी लागते , तसेच आपण कुणाला
काय सांगतो आहोत ", ही ही लक्षात ठेवावे लागते , "प्रसंगावधान आणि  तत्परता - हे गुण आपल्या
स्वभावात  असणे , अशा वेळी खूप उपयोगाचे ठरते .
संयमशील श्रोता आणि प्रेक्षक " अश्या दुहेरी भूमिकेतून यशस्वी वावरता येते ",अशा व्यक्ती सार्वजनिक
ठिकाणी लोकांच्या नजरेत सहजपणे भरत असतात.
तेव्न्हा - ऐकणे तत्परतेचे असावे म्हणजे ', योग्य वेळी योग्य प्रतिसाद देता येतो.
थंड आणि मक्ख चेहेरा ठेवून समोरच्या "आपल्या माणसाला निराश करून नका ".
 तुमच्या मनात काही नसेल ही ,पण तुमच्या दर्शनी रूपाने  विनाकारण तुमच्याबद्दल गैरसमज  होणे",
 नक्कीच बरे नव्हे. समोरच्या व्यक्तीला तुम्ही "बोलणे -सांगणे लक्षपूर्वक ऐकत आहात असे वाटले पाहिजे ",
तरच तुमची भेट फलद्रूप होऊ शकेल , अन्यथा .. अपूर्ण संवाद आणि दुराव्यामुळे " भेटून ही उपयोग नाही ",
असे होणे काय कामाचे ?
आपणच आपल्याला आवरावे -सावरावे आणि घडवावे सुद्धा , यालाच तर जीवनानुभव असे म्हणतात .


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लेख- संयमशील.श्रोता आणि प्रेक्षक ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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लेख- स्वप्न जरूर पहावीत ....!

लेख- स्वप्न  जरूर पहावीत …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे
मो- ९ ८ ५ ० १ ७ ७ ३ ४ २
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माणसाचे मन मोठे अगम्य चीज आहे." मनाला काय हवे आहे ?
याचा शोध घेणे फार अवघड असते , कारण चंचल -वृत्ती " हा मनाचा
एक मोठा अवगुण आहे , त्यामुळे अशा मनाला आवरणे कठीणच असते ,
किंबहुना  वेळेवर मनाला सावरता येणे ", हे ज्याला जमले ,तो एक खरा
गुणी माणूस समजला जातो.
"आवडणाऱ्या  गोष्टींची प्राप्ती व्हावी वाटणे - अगदी सहाजिक आहे , आणि
हे सारे कल्पनेत खरे झालेले पाहणे आपल्याला सर्वांना आवडणारी गोष्ट आहे ,
यालाच 'स्वप्नातल्या दुनियेत रमणे " असे म्हणू या.
खरे म्हणजे - आपली स्वप्ने खरी होतील ", हीच मोठी आशादायी भावना आहे.
स्वप्ने आपल्याला उमेद देतात , मनातल्या कल्पना भरारी घेऊ पाहतात ", तेव्न्हा
याच कल्पना आपली स्वप्न बनतात .
स्वप्ने मनाला आनंद देणारी असतात , स्वप्नात रममाण झालेले मन आपले
एखादे दुख  ही विसरू शकते , स्वप्नात  मनाचे रंजन करण्याचे सामर्थ्य असते,
त्याच वेळी "आपल्या भव्य कल्पना साकार होऊ शकते याचे आत्मिक बल मिळवून
देते ते आपले स्वप्नच असते."
लहान -थोर  सारेच स्वप्न पहातात , जो तो आपल्या मानसिक कुवती प्रमाणे स्वप्न
पहातच असतो. थोर समाज -पुरुषांची स्वप्ने  दूरदृष्टीची चाहूल असते,अनेक विधायक -
-कार्य पूर्ण होण्याची स्वप्न पाहणे , त्यानुसार कार्य करणे - हे त्यांच्या "स्वप्नांचेच फलित असते."
धेय्य -पूर्तीचे स्वप्न पहाणारे सदा कार्यरत असतात , आपल्या
स्वप्न-पुरती साठी ते सतत धडपडत असतात , यश- अपयश या
दोन्ही गोष्टी आयुष्यात येतच असतात , पण खचून गेलेल्या  मनाने
उभारी घेतली तर उत्तुंग -स्वप्ने पाहणारी आणि ती प्रत्याक्ष्यात
आणणारी "जिगरबाज माणसे ", आपल्याला बल देणारीच असतात .
आपण आहोत त्यापेक्षा अधिक दिव्य  अधिक संपन्न , भव्य आणि उदात्त
संक्ल्पना -यांची स्वप्न पहाणारे " सर्वांची जीवन सुखदायक आणि आनंददायक
बनवू शक्तात.
स्वप्ने प्रत्येकजण पाहू शकतो , कोण कशाचे स्वप्न पाहिलं याचा
अंदाज करणे खरेच कठीण असते . कर्तबगार माणसे स्वप्ने पहातात ,
ती सर्वांच्या भल्यासाठी असतात , म्हणून त्याचे महत्व आहे.
संशोधक , कलावंत ,वैज्ञानिक , शास्त्रज्ञ , गुरुजन , यांची स्वप्ने हीतकारी
असतात असे म्हणू या.
आळशी माणूस देखील स्वताच्या आनंदासाठी स्वप्ने पाहतो , पण लोक
म्हणतात - रिकामी -त्याची स्वप्ने -बिनकामी ." तरीही तो आपल्या
स्वप्नाच्या दुनियेत आनंदीच असतो ना ।!
थोडक्यात काय- आपल्या आनंदसाठी  स्वप्न जरूर पहावीत .
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लेख- स्वप्न जरूर पहावीत …!
-अरुण वि .देशपांडे - पुणे .
मो- ९८५०१७७३४२
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कविता - खरच तू छान आहेस ..... !

कविता - खरच तू छान आहे…!
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे
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फोटोतली तू छान आहे
खरी अधिक छान आहे
खोटे तर मुळीच नाही
हे मनापासूनचे आहे …
डोळ्यात पहा चित्र तुझे
खरच  तू  छान आहे ………!

कौतुक करण्या सदाच
शब्द अपुरे ते पडती
ज्याच्या साठी ते असती
त्याला फुलापरी वाटती
तुझ्यासाठी  शब्दफुले आहे
खरच  तू छान आहे.… ……।

डोळ्यांनी पाहशी जेजे
खरेच नसते जराही ते
मनाला जाणवेल तुझ्या
तेवढे सारे खरे आहे
मला एक सांगायचे आहे
खरच तू छान आहे ………. … !
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कविता - खरच तू छान आहे …।
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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कविता -चला सारे जय घोष करू...!


कविता - चला सारे जयघोष करू
              सद्गुरू  -जय -सद्गुरू …॥
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे.
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चला सारे जयघोष करू
सद्गुरू जय सद्गुरू …॥

नामस्मरण त्यांचे करू
डोळे मिटुनी ध्यान करू
चला सारे जयघोष करू
सद्गुरू जय सद्गुरू …॥

साईराम साईराम म्हणा
म्हणा स्वामी समर्थ गुरु
चला सारे जयघोष करू
सद्गुरू जय सद्गुरू …॥

सद्गुरू  तुम्ही कल्पतरू
तवकृपे जीवन नौकातरु
चला सारे जयघोष करू
सद्गुरू जय सद्गुरू …॥
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कविता  - चला सारे जयघोष करू
              सद्गुरू  -जय -सद्गुरू …॥
-अरुण वि . देशपांडे - पुणे
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कविता -वाऱ्यावरती मन हे डोलते ...!

 कविता - वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।
 -अरुण वि .देशपांडे - पुणे .
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वाऱ्या वरती मन हे डोलते
आनंदाचे आले त्यात भरते
दोन मनांची  भेट आजला
आसमंती हे  गुज पसरते …
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।

दोन ठिकाणी दोघे असता
भेटने  अवघे असे कठीण
रात्र सरते चांदण्या  संगती
उजाडे  दिवस तो कठीण ….
मनात तरी उमेद असते
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।

समोर समोर येण्याची ती
आतुरता  मोठी असे किती
थरथरत्या स्पर्शांची जादू
वाटे प्रतीक्षा संपवावी ती …
मन हेच बोलत असते
प्रेमात हे असेच होत असते
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।

नजरेस नजरे भिडता
ते सारेच क्षणात उमजे
या मनातले सारेच कसे
अलगद  त्या मनास समजे …
प्रेमात हे असेच होत असते
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।

भावना प्रीतीची सुरेखशी
जीवनास सुंदरता देते
प्रेम करावे मनापासुनी
हे नक्की अनुभवता येते …….
प्रेमात हे असेच होत असते
वाऱ्या वरती मन हे डोलते ……।
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कविता - वाऱ्यावरती मन हे डोलते …!
-अरुण वि .देशपांडे - पुणे .
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Saturday, July 27, 2013

कविता - मी परतुनी आलो नसतो …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

आव्हरले होते दुनियेनॆ
लोकांनीही नाही उभे केले
मी माझा दूर निघालो होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

साथ -सोबती नव्हते कुणी
सवे आले ही नव्हते कुणी
एकटाच मी माझा निघालो होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

केलीस तू  माझी चवकशी
आस्थेने बोलले नव्हते कुणी
तू थांबवले अन मी थांबलो होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

प्रेमाच्या शब्दात असते
ताकद मोठी, हे ऐकून होतो
दिलास तू आवाज थांबलो होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

विश्वास हरवून बसलो होतो 
सापडून मला तो तूच दिला
नसता खूप दूर गेलो असतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥

नशिबी योग असतात  हे
लोकांचे बोलणे ऐकत होतो
घडेल चांगले वाट पाहत होतो
तू अन मी भेटलो नसतो
मी परतुनी आलो नसतो     ॥
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कविता - मी परतुनी आलो नसतो ।!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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Tuesday, July 2, 2013

कविता - जीवनगाणे वाटे जणू आळवावरचे पाणी ...!

कविता -जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे
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हे असे जीवनगाणे ,अशी जीवन कहाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥

मनात  जिद्द अनोखी ,वेडी तरी भोळीभाबडी
हारणे  कधी मंजूर नसते  ,जिंकण्याची आवडी
हे असे जीवनगाणे ,अशी जीवन कहाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥

विसरणार नाही कधी ,ती  तुझी  रे लढाई
घनघोर  आवेग तुझा , तू भासे एक शिपाई
हरने  अप्रिय तुजला  , मज प्रिय विजयकहाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥

वास्तवात नसे आता जरी अस्तित्व तुझे
स्मृतीत चिरंतन असते पूजन तुझे
आठव होतो तुझा अजुनी नयनी येते पाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥

हे असे जीवनगाणे ,अशी जीवन कहाणी
जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥
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कविता -  जीवनगाणे वाटे जणू अळवावरचे  पाणी ……… ॥
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे
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Thursday, May 30, 2013

कविता - काही कळेना ....!

कविता - काही कळेना … !
अरुण वि. देशपांडे -पुणे
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दिसती मख्ख्से हे चेहेरे भोवताली
खदखदे आत काय ?, काही कळेना …….॥

विपरीत झाली अवस्था ही आज सारी
झाली मने कोरडी , कुणी हळह्ळेना ……॥

जखमा होती मना नाजूक त्या कितीदा
वागू नये असे कळते , पण का वळेना ……. ॥

भोग आले वाट्यास , भोगणे ते चुकेना
जळते , त्यालाच कळते , कुणा कळेना ……. ॥

मन बोलते माझे , माझ्याशी वेळोवेळा
काय करावे अशावेळी , त्यास कळेना ……… ॥
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कविता - काही कळेना …।
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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Sunday, May 19, 2013

कविता - स्पीड- ब्रेकर ..!

कविता - स्पीड- ब्रेकर ….!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे
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तुझ्या समोरून जाणारा नेहमीच
अडखळतो ,धडपडतो , नि पडतो
ठेचा लागतात , आतून जखमी होतो
शब्द तुझा एकेक  स्पीड -ब्रेकर असतो ….।

तुला असेल रे मिळाली देणगी गोष्टींची
म्हणून सगळेच तुझ्या सारखे असतात का रे ?
तू पैशाने आहेस मोठा ,मनाने किती छोटा    !
तुझ्या बद्दलचा तुझा समज तद्दन खोटा असतो
शब्द तुझा एकेक , स्पीड -ब्रेकर असतो …!

तू ,तुझा अनुभव ,वापर ना मित्रान साठी
अरे आधार दिलास ना तू, उभे राहतील नव्याने
पण आमचे  अंदाज तू नेहमीच चुकवतो
शब्द तुझा एकेक -, स्पीड -ब्रेकर असतो …. !

चालणार्याला रस्ता जो दाखवतो ,तो एक
पथदर्शक असतो,दिशा नवी देणारा असतो
दिशाभूल करीत राहण्यात तू आनंद मानतो
शब्द तुझा एकेक -, स्पीड -ब्रेकर असतो …।

सांगितले तुला आज मित्रा मनातले सारे
राग करायचा नसतो आपल्या माणसाचा रे
खूप वेळ अजूनही तुझ्या हातात रे असतो
लक्षात ठेव आपला शब्द एकेक उभारी देणारा असतो ….
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कविता - स्पीड- ब्रेकर …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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Monday, May 13, 2013

कविता -न सांगताच सारे कळूनी आले ...!

कविता - न सांगताच सारे कळूनी आले ….!
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कालच्या भेटीत दोन डोळे बोलले
न सांगताच सारे कळूनी आले ….!!

आकाशीचे चांदणे ते सोबत होते
मंद वारे खुशीत मधुर गात होते
मनास आनंदाचे उधाण आले
न सांगताच सारे कळूनी आले ……

सागर किनारी वाळूत उमटले
तुझ्या नाजूक पावलांचे ते ठसे
खुलता गाली स्मित नाजुकसे
न सांगताच सारे कळूनी आले ….।

घर दोघांचे आता तू सजवले
स्वप्ने गोड सारे आता सजले
मनातले गुपीत तुझ्या सखये
न सांगताच सारे कळूनी आले.…….।
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कविता - न सांगताच सारे कळूनी आले ….।
कविता - अरुण वि .देशपांडे -पुणे .

Friday, May 3, 2013

कविता - सांज ही, न सांगताच मावळून गेली ...!

कविता - सांज ही , न सांगताच मावळून गेली …!
अरुण वि देशपांडे -पुणे
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वेळ सारी ती केव्न्हाच निघुनी गेली
लाट अकस्मात आली विरून गेली
समुद्राच्या काठी तसाच तिष्ठत तू ,
सांज ही , न सांगताच मावळून गेली …!

हातात जरी नसे कधी काही आपुल्या
परक्या सावल्या ही होती की आपुल्या
वीज ती आली अन डोळे दिपवून गेली
सांज ही , न सांगताच मावळून गेली …!

सोबतीची सवय मनासी ती होते
मनात अलगद मन गुंतुनी जाते
पायवाट सोबतीची हरवून गेली
सांज ही, न सांगताच मावळून गेली …!
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कविता - सांज ही, न सांगताच मावळून गेली …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .

Wednesday, May 1, 2013

कविता- कविता लिहितांना मला ...!

रसिक हो-
काल नाशिक "गारवा"- स्नेह्-सम्मेलनात मी सादर केलेली
माझी कविता -
"कविता लिहितांना मला "- आपल्यासाठी सादर -
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कविता लिहितांना मला -
(मन डोह कविता संग्रहातून)
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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कविता लिहितांना मला
नव्याने सापडतो मीच मला
हरवून गेलेले खूप काही
अलगद सापडते मग मला …।!

नाद अनाहत ऐकू येई
अंतर्बाह्य भारला जाई
विसर पडे जगाचा मग
कविता लिहितांना मला ……।

माणसातला माणूस कसा ?
जगण्यातले जगणे कसे ?
उलगडते हे अवघे कोडे
कविता लिहितांना मला …।

जग असू दे कितीही कठोर
शब्द असती फुलापरी कोमल
विशाल अर्थ छटांच्या जगात या
सहज प्रवेश असतो मला ……।

लिहितांना कविता मला
नव्याने सापडतो मीच मला ….!
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कविता लिहितांना मला …….!
(मन डोह कविता संग्रहातून)
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .

Tuesday, April 23, 2013

कविता - असे म्हणावे लागते ..!

कविता - असे म्हणावे लागते …!
-अरुण वि देशपांडे -पुणे.
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पाउल टाकतो कुणी
मागे मागेच सरतो
घाबरू नको चल पुढे ,
असे म्हणावे लागते …!

धीर नसतो मनात
धैर्य ही कमी असते
सुरु तर कर  मित्रा
असे म्हणावे लागते …!

कार्य हातावरचे  ते
सफल संपूर्ण करावे
मदतीस आहे तुझ्या
असे म्हणावे लागते …!

रसाळ फळ यशाचे
नक्कीच प्राप्त  होते
परिश्रम सतत कर
असे म्हणावे लागते …!
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कविता - असे म्हणावे लागते …!
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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Monday, April 22, 2013

कविता - विनाकारण असेच ...!

-कविता -विनाकारण असेच …!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे .
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विनाकारण असेच
शून्य होई का हे मन  ?
टाकून बसते मान
मलूल त्या  फुलापरी ….!

रोजचेच जिणे सारे
भारवाही झाले खरे
खांदे  दोन्ही  झुकले
बळ नाही पहिल्यापरी …!

चित्तात समाधान हे
नाही मुळीच राहिले
मिळवावे किती किती
भान ही ना राहिले ….!

हुरूप मनासी येण्या
काय करावे हो आता ?
नवी उमेद ,नवी आशा
कुणी जागवावी आता …!
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कविता -विनाकारण असेच …!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे .
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आजच्या पुणे परिचय -ई- पाक्षिक -दि.२२.एप्रिल २०१३ च्या अंकातील लेख- यशाचे वाटेकरी ..!


रसिक-वाचक मित्र हो- पुणे परिचय- ई-पाक्षिक -दि.२२ एप्रिल-२०१३ , आजच्या अंकात प्रकाशित झालेला माझा लेख- " यशाचे वाटेकरी !... तुमच्या अभिप्रायार्थ..



http://www.puneparichay.com/PuneParichay/22Apr2013/Normal/page2.htm

Monday, April 15, 2013

कविता - काठावरी पूर आठवणींचा ...!

कविता - काठावरी पूर आठवणींचा ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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मन अवखळ पाण्यापरी कसे याला रोकु ?
काठावरी पूर आठवणींचा , कसे  याला रोकु  ?

दाट काळोख कधी , कधी लक्ख चांदणे असते
कधी तलखी उन्हाची , कधी चिंब वर्षा असते
उधाण येता मनास मग  ,कसे याला रोकु
काठावरी पूर आठवणींचा , कसे याला रोकु ?

भासे वर शांत शांत जरी , मनाचे  हे तळे
काय खोल डोहात , हे  कधी कुणा ना कळे
प्रयत्न अपुरे पडता,  वाटे शोध घेऊ शकू ?
काठावरी पूर आठवणींचा , कसे याला रोकु ?

मन अवखळ पाण्यापरी  कसे याला रोकु ?
काठावरी  पूर आठवणींचा , कसे याला रोकु ?
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कविता - काठावरी  पूर आठवणींचा ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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Friday, April 12, 2013

कविता - मन एक झाड ...!

कविता - मन एक झाड …!
( मन डोह -कविता संग्रहातून )
-अरुण वि. देशपांडे -पुणे
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मन एक झाड , मरगळ त्याची पानगळ
हरवे उमेद त्याची , ही फसगत निव्वळ

मन एक झाड , किती किती कोमेजे
शोधी आशाळभूत ते , हवे हवेहवेसे  जे

बरसला बरसला , एकदा पाऊस बरसला
ओसाड या झाडाला , हिरवाई देऊन गेला

उगवे ते  कोंब कोवळे , धिटाई पहा किती
उसळाई  त्याची वरती , आकाशा स्पर्शण्या

मन एक झाड , खुलले फुलले पहा पुन्हा
तरारले  तरारले  ते , नव्या उमेदिनॆ पुन्हा …।
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कविता - मन एक झाड …!
(मन डोह - कविता संग्रहातून )
-अरुण वि. देशपांडे - पुणे .
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कविता - रंग हे जीवनाचे हे , रोज कितीदा पाहिले ..!

कविता -रंग जीवनाचे हे , रोज कितीदा पाहिले ...!
- अरुण वी.देशपांडे -पुणे
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  रंग जीवनाचे हे, रोज कितीदा पाहिले
  पाहुनी रंग परी , मन रितेच  राहिले …॥

 तजेलदार रंगाने मन उमलून जाई
 आवडीचे  भेटता सहज मिसळून जाई
 विघ्नसंतोषी एकाने विस्कटून  हे टाकले
 रंग जीवनाचे हे, रोज कितीदा पाहिले …॥

 पाउलवाटेवर काटे का पसरती  लोक ?
 काटेरी शब्दांनी का पाडती मनाला भोक ?
 आधार देणे मनासी ते तर दूरच राहिले
 रंग जीवनाचे हे, रोज कितीदा पाहिले .......||

 शेरास भेटे सवाशेर, हे विसरले गेले
 भित्रे असतात सारे , गृहीत धरले गेले 
 जिगरबाज भेटता,  चित्र हे बदलून गेले 
 रंग जीवनाचे हे , रोज कितीदा  पाहिले ........||

 रंग जीवनाचे हे, रोज कितीदा पाहिले
 पाहुनी रंग परी , मन हे रितेच राहिले ....||
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कविता - रंग जीवनाचे हे  , रोज कितीदा पाहिले ..!
-अरुण वी.देशपांडे -पुणे.
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Sunday, April 7, 2013

सोहम ची गोष्ट आणि रेणूची गोष्ट- या पुस्तकांचा परिचय

परवा अरुण देशपांडे सर औरंगाबादला आले तेव्हा त्यांच्या तीन पुस्तकांचा संच वाचायला मिळाला. बालकुमारासाठी 'रेणूची गोष्ट','सोह्मची गोष्ट' हे दोन कथासंग्रह आणि 'आली आली परीराणी' हा कवितासंग्रह... दिसताच मी त्यावर झडप घातली. कथा, आणि कादंबरी हे माझे अत्यंत आवडते साहित्य प्रकार. त्याबाबतीत मी अजूनही लहान बालकच आहे असे समजायला हरकत नसावी. जेवताना सुद्धा एकीकडे पुस्तक असेल तर दोन घास जास्त जातात. बालकासाठी लिहिलेले साहित्य आटोपशीर आणि रंजक असल्याने मला फार आवडते. त्यामुळे ही गोष्टीची पुस्तके अधाशासारखी वाचून काढली. त्याचा माझ्या मताप्रमाणे हा छोटासा आढावा ... माझ्या शब्दात.

तशी दोन्ही गोष्टीच्या पुस्तकांची प्रकृती सारखीच. त्यामुळे दोन्हीवर एकत्रच लिहायला हरकत नाही. सुंदर, देखणे रंगीत मुखपृष्ठ पाहताच पुस्तक वाचून पहायची भूक जागी होते, हे पुस्तकाचे पहिले यश.... आणि प्रत्यक्ष वाचायला घेतल्यावर साधी, सरळ ओघवती भाषा आपल्याला वाचते ठेवते. बालकथा म्हंटले कि काल्पनिक जगातल्या परया, भुते, राक्षस, बोलके प्राणी किंवा वस्तू अशीच आपली अपेक्षा असते. पण या संग्रहात असले काल्पनिक, अतिरंजित जग औषधालासुद्धा सापडणार नाही. बाल आणि कुमारांचे खरे भावविश्व, होणारी घुसमट, तंत्रज्ञानाबरोबर धावणाऱ्या पालकांनी आपल्याच मुलाची केलेली भावनिक हेळसांड त्यातून बालकांच्या मनात निर्माण होणारे न्यूनगंड, अहंगंड, भयगंड, मनोव्यापारिक आव्हाने अशा अत्यंत सकारात्मक बाबींना लक्षून लिहिलेल्या या कथा खरे तर संस्कारकथाच म्हणायला हव्यात. एखाद्या समजदार मित्राने गप्पा टप्पा करत काहीतरी महत्वाचे सांगून जावे, तशा या कथा आहेत. प्रत्येक कथेत एक अत्यंत महत्वाचा विचार मांडलेला आहे. पुस्तकांचे संस्कारमूल्य खूप उच्च दर्जाचे आहे हे सहज जाणवते.

पौगंड मुलांच्या मनात घुटमळत असलेले अनेक प्रश्न मांडून लेखकाने एका परीने त्यांच्या कोंडमाऱ्याला वाट करून दिली आहे. बालक पालक मिळून या कथा वाचतील तर त्यांच्यात एक नवीनच मित्रत्वाचा संवाद सुरु होईल, यात शंकाच नाही. काही ठिकाणी पालकांच्या डोळ्यात झणझणीत अंजन घालणाऱ्या बाबी मांडल्या आहेत.

पण काही अपेक्षाभंगही ही पुस्तके वाचताना होतात. लेखकाला अभिप्रेत वाचक कोण ते कळत नाही. जर बाल कुमार असतील तर त्या मानाने कथा कमी आणि मनोविश्लेषणच जास्त जाणवते. एका परीने असे पुस्तक पालकांनी आधी वाचावे अशा धाटणीचे वाटते. बाल वाचकाला खिळवून ठेवणारी रंजकता, आणि कथावस्तू यात लिखाण थोडेसे कमी पडते. काही कथांना रूढ अर्थाने अभिप्रेत असणारे कथानकच नाही. तो मुलांशी समुपदेशकाने साधलेला संवादच जास्त वाटतो.


बाकी छपाई, मुखपृष्ठ , मांडणी यात सगळीकडे गुणवत्ता जाणवते. पुस्तकांच्या किमती अत्यंत माफक असल्याने कोणीही हा संच आपल्या पाल्याला वाढदिवसाची आगळी वेगळी भेट म्हणून देऊ शकेल. मुलाइतकेच शिक्षक आणि पालक यांनी आवर्जून वाचावे असे हे साहित्य आहे.

--- नवनाथ पवार
Arun Deshpande aurangabadla ale tevha tyanchya three preoccupation pustakancha Sir vachayla milala paintings free. Balkumarasathi "renuchi gosht ', ' sohmachi & kathasangrah ' ali ali gosht ' o' that is exempt parirani ' HA kavitasangrah ... Distach m jhadap ghatli tyavar. Legend, and novel o majhe extremely avdate literature. Tyababtit m ajunhi samjayla balkach ase nasavi action screen adaptation lane. Asel ekikde suddha jevtana book level that is exempt grass jast jatat. Balkasathi lalala asalyane avdate atopshir and dyes of literature rubbed. Tyamule goshtichi adhashasarkhi kadhli vachun packets only. Majhya matapramane tyacha HA small adhava ... Majhya shabdat.

Prakriti sarkhich goshtichya pustakanchi tashi donhi. Tyamule donhivar ektrach lihayla nahi action. Beautiful, pahaychi vachun bhuk book breakthrough pact dekhne rangit homepage, my Kudos to forestall pustakache. ... And direct vachayla ghetalyavar oghvati apalyala vachte thevte grim, saral language. Balkatha mhantale the fictional jagatalya parya, bhute, Monster, bolke kinva creature has ashich vibratory power than the Moon is our mother. Gage or sangrahat sapdanar nahi aushdhalasuddha asle fantasy, exaggerated jug. Child & ghusmat tantragyanabrobar dhavnarya bhavvishva up the kirkman, horn palkanni apalyach mulachi bhavnik, tyatun balkanchya hand nyungand construction horn manat calella, ahangand, bhaygand, manovyaparik lakshun lihilelya or extremely positive babin legend ASHA avhane Khare level sanskarkathach mhanayla havyat. Ekhadya do kahitri mahatvache samjadar tappa mitrane gappa sunning to him/her, tasha or narrative. Consider an extremely mahatvacha each kathet mildenhall. Pustakanche sanskarmulya darjache janvate high very comfortable screen adaptation o.

Paugand mulanchya ghutmalat lekhkane parine manat tyanchya kondamaryala multiple select questions mandun alleles Watt karun heartwarming. Tad vachtil tyanchyat navinach spinach mitratvacha a standard narrative milun or dialog started hoil, Mr. shankach nahi. Palkanchya dolyat jhanjhanit anjan thikani kahi ghalnarya bluff mandalya.

Gage only apekshabhangahi kahi vachtana hotat packets. Kalat nahi lekhkala Te signifying angle intended. Du Bal Kumar & manane tya manovishleshnach jast astil level short story janvate. Select vachave dhatniche palkanni parine ase book half ASHA waite. Hair vachkala khilvun thevnari thodese likhan retouching, and Mr. lack kathavastu padte. Kahi kathanna nahi kathankach arthane asnare rudh means. Mulanshi samupdeshkane sadhlela sanvadach veto the jast.

Mr. mandani saglikde quality printing, rest home page, janvate. Pustakanchya konihi HA asalyane extremely kimti maphak agli vadhdivsachi jedhe vegli bhet deu apalya palyala paintings free shellac. Hey vachave ase avarjun mulaitkech teacher and parent yanni literature.

---Nawanath Pawar (Translated by Bing)

Thursday, April 4, 2013

कविता - गीत गाईन म्हणतो ...!


कविता - गीत गाइन म्हणतो ...!
-अरुण .वि.देशपांडे -पुणे

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वेळ असेल तुला आज तर गीत गाईन म्हणतो
नवे जरी सर्वांसाठी ते , तुझ्या ओळखीचेच म्हणतो .
गाणे एक तुझे माझे काल होते ,  तेच आज म्हणतो
नवे जरी सर्वांसाठी ते,  तुझ्या ओळखीचेच म्हणतो ...।। १ ||

विसरलीस  जरी  क्षण सारे ,अजुनी मी आठवतो
शब्द न शब्द फुलापरी  मनात , सारे ते  साठवतो
बदलतात माणसे अचानक,   मी हे ऐकून होतो
काय उणीवा दिसल्या तुजला ,विचार करीत होतो...||  २ ||

शब्द आपुले ,संगीत त्यातले  , एकरूप दोघे होतो
बेसूर होता सुरावट सारी  , मी एकटा  झालो होतो
तेच गीत तेच गाणे आज, मी पुन्हा एकदा म्हणतो
नवे जरी सर्वांसाठी  ते,  तुझ्या  ओळखीचेच  म्हणतो  ।। ३ ||
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कविता - गीत गाइन म्हणतो ...!

-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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Tuesday, March 26, 2013

कविता - रंग खेळू या रे...!


कविता - रंग खेळू या रे  ..!
अरुण वि ..देशपांडे -पुणे
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रंगच रंग ,सारे  म्हणती रंग खेळूया  रे
उडवुनी रंग , रंगात भिजवुनी टाकू या  रे    ।।

मनमोहक रंग किती हे सारे पाहुनी
मन  साऱ्यानचे येते रंगासंगे खुलुनी    |

सोडू नका ,सोडू नका आज कुणालाही रे
आज त्याला ,रंगात भिजवुनी टाकू या रे ... ||

जगण्यातले रंग ते , कधीचे उडुनी  गेले
आनंदाने जगण्याचे सारे,  विसरुनी  गेले...|

जीवनगाणे आनंदाने म्हणू  आज  सारे
उडवुनी रंग ,रंगात भिजवुनी  टाकू या रे.......||

रंगच रंग , सारे म्हणती रंग खेळूया  रे
उडवुनी रंग, रंगात भिजवुनी टाकू या रे ...।।
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कविता - रंग खेळू या रे ..!
अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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Friday, March 22, 2013

कविता - हे असे बरे नव्हे ...!

कविता - हे असे बरे नव्हे ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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चुका माणसे करतात
 माफ करणारे पण
माणसेच असतात मग
आडमुठे वागणे तुझेच
ठळकपणे भरते नजरेत
हे असे बरे नव्हे ...!---------।।१ ।।
गैर- समजाचे  रंगीत फुगे
किती यात रमणार तू
लोक मान देतीलही तुला
असेल तो तुझ्या कलेला
जाणीव ठेव या भावनेची
हे असे बरे नव्हे ....!............।। २ ।।
तुला कळत नाही का फरक
सुखावणे आणि दुखावणे यातला ?
आपला मानला ज्यांनी तुजला
तटकन तोडलेस तू  -त्यांना
हे असे बरे नव्हे ...!------------।।३ ।।
बोलणार नव्हतो मी हे काही ,
मनाने सांगितले मला ,
मित्र म्हणवतोस ,गप्प पहातोस .
हे असे बरे नव्हे....!--------------।।४ ।।
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कविता - हे असे बरे नव्हे ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे

Monday, March 18, 2013

कविता - असेच होते दरवेळी ...!

कविता-  असेच होते दरवेळी ....!
- अरुण वि.देशपांडे - पुणे.
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खूप बोलयाचे तुजला
ठरवतो मनाशी माझ्या
समोर येता शब्द नाही
असेच होते दरवेळी ...!
समजून आहेस  सारे
ठेवतेस  चेहेरा  कोरा
आणि माझा गोरामोरा
असेच होते दरवेळी ....!
का असे तुझे हे वागणे
अन स्वप्नात येणेजाणे
 हसण्यात मी विरघळणे
 असेच होते दरवेळी ...!
 नजरेतले तुझ्या सारे
 ओठी येउनी  का थांबते
 आतुरता संपेना अजुनी
 असेच होते दरवेळी........!
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कविता - असेच होते दरवेळी ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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Sunday, March 17, 2013

कविता - जाता जाता ...!

कविता- जाता जाता ...||
-अरुण वि .देशपांडे-पुणे.
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काही हुकले काही  चुकले|   कसला हिशेब जाता जाता
थोडे थोडे जरी जमले    |    चुकते करू जाता जाता .......||
पाहता वळून मागे आता  |  मन भडभडे जाता जाता
पुन्हा पुन्हा मायाबजारी |    नकोच गुंतणे जाता जाता ..||
कसले शब्द कसल्या भावना | आठवणे नको  जाता जाता
दुखावली असतील सारी    |   नको उगाळणे जाता जाता ..   ||
कैफ मस्तीखोर जगण्याचा |  आठवे  आता जाता जाता
बरे नाही सारे  गमावणे    |   सांगावे हे आता जाता जाता ....||
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-कविता- जाता जाता ..||
-अरुण वि .देशपांडे- पुणे.
                                          
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Thursday, March 14, 2013

कविता- इथे लोकांना ...!

कविता - इथे लोकांना
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे .
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कधी कधी मन आपले  खट्टू  असते
दुसर्याचा हसरा चेहेरा पाहून तर
अधिकच चरफडते ,दोष देत बसते
नशिबाला स्वताच्या ,लक्षात येत नाहे त्याच्या ,
नशिबात असेल तेच आणि तेवढेच मिळते....
इथे लोकांना ..।
दुखास लपवून  हसऱ्या चेहेऱ्यानी वावरणे
जमते खूप लोकांना  ,सांगत नाहीत कधी ते  दुख आपले
इथे  लोकांना.
जगण्यात आनंद घेता -घेता ,देताही येतो आनंद  सर्वांना ,
कळत असूनही , न कळल्या सारखे  वागता येते
इथे लोकांना ..!
दुखांना कुरुवालीत बसने , रडगाणे गात बसने
प्रदर्शन अवघ्या निराशेचे करणे ,खूप छान जमते
इथे लोकांना....!
जगणे जागून होता ,मग शहाणपण येते वागण्याचे
तहान लागता खोदणे  हे विहिरीचे ,नाही उपयोगाचे ,
कळत नसेल खरेच हे असे   
इथे लोकांना ....!
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कविता - इथे लोकांना ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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Sunday, March 10, 2013

लेख- रुखरुख मनाची आपल्या...!

लेख- रुख रुख  आपल्या मनाची ....!
-अरुण वि..देशपांडे  -पुणे.
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, या दोन्ही अवस्था आपल्या मनाशी  आणि मनाच्या अवस्थेशी
संबंधित आहेत. एखादी  गोष्ट  वेळेवर न केल्याने , किंवा एखादी प्रतिक्रिया
सांगण्याचे अगर व्यक्त करण्याचे मनात असूनही राहून जाते"  ",
अशा वेळी  मनाला विलक्षण अशी "रुखरुख लागून राहते ", आणि नंतर
एकांती असता मनाला मोठीच "हुरहूर लागून रहाते. ".
खरे म्हणजे हे दोन्ही आपण टाळू शकतो, त्यासाठी  परस्पर उत्तम असा संवाद हवा,
आणि  समोरच्या व्यक्तीची भावना " समजंस -श्रोता  होऊन ऐकण्याची आपली  तयारी हवी."
बहुतेक वेळा - आपण ऐकून घेण्याच्या बाजूने नसतोच. आणि पुष्कळांना तर नेहमी
"आपलेच घोडे पुढे पुढे दामटण्याची  दांडगी हौस  असते".
 या अशा सवयीच्या  लोकांनी नीटपणे ऐकून घेतलेले नसते, महत्वाचा भाग राहून जातो,
आणि मग योग्य प्रतिसादा  अभावी  भावना पोन्हाचत नाहीत.,सांगणारी व्यक्ती नाराज
होऊन निघून जाते. थोड्यावेळाने  मग, आपणच मनाशी म्हणतो-
अरे- तो असे म्हटला काय..!
चुकलेच जरा ..! आणि मग मनाला विलक्षण टोचणी लागते, ही रुखरुख ", अपराधीपणाची
जाणीव  फार त्रासदायक असते.
तेव्न्हा - ऐकणे तत्परतेचे असावे म्हणजे ', योग्य वेळी योग्य प्रतिसाद देता येतो.
थंड आणि मक्ख चेहेरा ठेवून समोरच्या "आपल्या माणसाला निराश करून नका ".
 तुमच्या मनात काही नसेल ही ,पण तुमच्या दर्शनी रूपाने  विनाकारण तुमच्याबद्दल गैरसमज  होणे",
 नक्कीच बरे नव्हे.
 मनाची ही रुखरुख वेळे अगोदरच संपवा.
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लेख- रुखरुख आपल्या मनाची ....!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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Thursday, March 7, 2013

कविता - स्त्रीला घेऊ समजून ...!

महिला-दिनाच्या  निमित्ताने -
कविता - स्त्री ला  घेऊ समजून ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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स्त्रीत्वाचा तिच्या कधी
नका करू  अपमान
असावा हो अभिमान
मनी मानसी आपुल्या ....।।
तिचा  वावर नानारुपात
म्हणून अर्थ आयुष्यात
विसरू नका  हे सारे
असुद्या सदा ध्यानात ...!!
वर्षातुनी  हा  एकदा 
भावनांचा  महापूर
शब्दांचे  पतंग आकाशी
दिसती छान -सुंदर  ........!!
वेदना -दु:क्ख  मनीची
व्यथा घेऊ समजून
संवाद साधू तिच्याची
स्त्रीला घेऊ  समजून .........!!
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कविता - स्त्रीला घेऊ समजून ....!
-अरुण वि.देशपांडे ---पुणे
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Friday, March 1, 2013

बाल-कविता- जंगलात ट्राफिक जाम झाली.....!

मुलांचे मासिक- नागपूर
फेब्रु- २०१३ च्या अंकात प्रकाशित कविता-
जंगलात ट्राफिक  जाम झाली .....!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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शहरी  रस्त्यावर  होते तशीच
जंगलात  घडली गोष्ट  अशीच
एकाच वेळी  सर्वांना  घाई झाली
त्यात  बघा ही ट्राफिक जाम झाली .......।।
उंदीरमामा , ससेभाऊ , अस्वल् दादा
हत्तिभाऊ, मनीमाऊ , माकड दादा
होते निघाले सारे आफिसला
बघती काय ट्राफिक जाम झाली .............।।
शाळेच्या रिक्षा ,अन गाड्या सगळ्या
अडकून पड ल्या जागच्या  जागी
मुल-मुली लागली म्हणू- अरे देवा ..!
काय करावे ट्राफिक जाम झाली ...............।।
जिराफ हवालदार खूप रागावले
शिट्टी  वाजवीत जोरात  म्हणाले
शिस्त पाळत नाहीत , बेशिस्त सारे
तुमच्यामुळेच ही ट्राफिक जाम झाली ........।।
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बाल कविता - जंगलात ट्राफिक जाम झाली ..!
-अरुण वि..देशपांडे -पुणे.
मुलांचे मासिक -नागपूर
फेब्रु -२०१३. अंकात प्रकाशित.

Thursday, February 28, 2013

कविता - आपली मराठी ...|

कविता- आपली मराठी..!
(एकता दिवाळी अंक- २०१२ मध्ये प्रकाशित )
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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मराठी असे माझी मायबोली
सर्व ठिकाणी असावी हीच बोली
किर्तीरुपाने राहावी नित्य दिगंत
साहित्य रूपाने मनात ही बोली .....।।
कवी असो वा असोत लेखक
कौतुक गावे सदाच तुम्ही
गा मराठी , लिहा  मराठी
बोला भाषा  आपली  मराठी.............।।
ज्ञानराजाने म्हणुनी  ठेविले
अमृता समान आहे  मराठी
करू पोषण आपल्या मनाचे
अमृत प्राशन  करुया  मराठी ............।।
आजचे पालक असुदे ध्यानी
नव्या पिढीच्या ठसवा  मनी
संस्कार धन आहे ही मराठी
बोलती ठेवा आपली  मराठी  ..............।।
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कविता - आपली मराठी ....।
(एकता दिवाळी -अंक- २०१२-मध्ये प्रकाशित )
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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Monday, February 25, 2013

कविता -माणूस ...!

कविता ---"माणूस ...!
(मन डोह कविता संग्रहातून )
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे
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चेहेऱ्या आडचा  माणूस
जमेल तसा वाचावा
असतो असा खरा
कवितेतून सांगावा ....!
माणसात रमावे अन
माणुसपण जोडावे
सुख-दुखाचे  भोग त्याचे
कवितेतून मांडावे ......!
कवितेने मज तसे
खूप असे दिले
दुर् देशीचे  स्नेहाळ  पक्षी
कवितेच्या फांदी भेटले ....!
वेल्हाळ पाखरू मनाचे
उंच उंच झेपावते
गाव कवीचा दिसता
तिथेच भिरभिरते ......!
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कविता -माणूस ...!
(मन डोह" कविता संग्रहातून )
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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Friday, February 22, 2013

कविता -खूप वाईट वाटते तेंव्हा ...!

कविता -    खूप वाईट वाटते तेंव्हा ...!.!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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आपले  म्हणवणारे  जेंव्हा
वाऱ्याप्रमाणे बदलून दिशा
समोरून जातात हे जेंव्हा
खूप वाईट वाटते  तेंव्हा ...!
काय गृहिते असतील ? या
स्व-केंद्रित  माणसांची ,ज्यांना
कधी  पर्वा नसते  कुणाची ..
भावना तुडवुनी जाती
खूप वाईट वाटते  तेंव्हा ...!
हळुवार ,प्रेम भावना यांना
किंमत नसते यांच्या लेखी
पैसा असतो  यांचा  सोबती
नसतो दुसरा कुणी सोबती
खूप वाईट वाटते तेंव्हा.......।।
माणसे कामा येती शेवटी
माहित नसेल का हे यांना
तरी लोटुनी देती माणसाना
खूप वाईट वाटते तेंव्हा ....।।
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कविता - खूप वाईट वाटते तेंव्हा ....!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.
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Wednesday, February 20, 2013

कविता - मनी वसे ते स्वप्नी दिसे.......!

कविता -

मनी वसे ते स्वप्नी दिसे .....!

-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.

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मन आपले असे कसे ?

विचारू नका हो हे असे

जितुकी माणसे भोवती

तितुकी मने वेगळी असे.....।।१ ।।

रंगुनी जाणे स्वप्नात हा

छंद मनाचा आवडता

मनात मग जे रेंगाळे

मनी वसे ते स्वप्नी दिसे ....।। २ ।।

वास्तवातील जगणे हो

परीक्षा मनाचे रोज असे

श्रांत होण्यासठी बिचारे

स्वप्नी आनंद शोधीतसे ....।।३ ।।

सुखाच्या शोधात निघता

मृगजळ दिसे ठायी ठायी

निराशा घेरुनी टाकी मना

त्यास स्वप्न उभारी असे ......।।४ ।।

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-कविता - मनी वसे ते स्वप्नी दिसे....!

-अरुण वि.देशपांडे -पुणे.