Sunday, June 24, 2012

कविता - | | बाजार ||

कविता - | | बाजार ||

by Arun V. Deshpande on Tuesday, May 15, 2012 at 2:44pm ·
||श्री ||                                                                      -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
कविता - | |  बाजार ||
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बाजारात गेलो मी देखण्या |, चक चकाट कसला होता ..|
घेउनी गेलो  पैसे मी खरे |, माल तिथला फसवा होता ...||
माणसांची गर्दी तुडुंब ती ,| पैश्यांचा खण खणात  होता .|
बेगडी सारे चमकते ते ,| मुखवटयांचा  ताटवा  होता ....||
डोळे भिरभिरते सगळे ,| पाहण्यारांना सोस होता ..........|
विकण्यासाठी काय नव्हते ?| ,जो-तो  चमचमता काजवा होता..||
भावना घेउनी मनातल्या ,| कुणी आलाच चुकून येथे ...|
कवडीची ना किमत त्याला |, दलालांचा तो कालवा होता ..||
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कविता  ||- बाजार ||                                                             -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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कविता - | | बाजार ||

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