कविता - | | बाजार ||
by Arun V. Deshpande on Tuesday, May 15, 2012 at 2:44pm ·
||श्री || -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
कविता - | | बाजार ||
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बाजारात गेलो मी देखण्या |, चक चकाट कसला होता ..|
घेउनी गेलो पैसे मी खरे |, माल तिथला फसवा होता ...||
माणसांची गर्दी तुडुंब ती ,| पैश्यांचा खण खणात होता .|
बेगडी सारे चमकते ते ,| मुखवटयांचा ताटवा होता ....||
डोळे भिरभिरते सगळे ,| पाहण्यारांना सोस होता ..........|
विकण्यासाठी काय नव्हते ?| ,जो-तो चमचमता काजवा होता..||
भावना घेउनी मनातल्या ,| कुणी आलाच चुकून येथे ...|
कवडीची ना किमत त्याला |, दलालांचा तो कालवा होता ..||
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कविता ||- बाजार || -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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कविता - | | बाजार ||
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बाजारात गेलो मी देखण्या |, चक चकाट कसला होता ..|
घेउनी गेलो पैसे मी खरे |, माल तिथला फसवा होता ...||
माणसांची गर्दी तुडुंब ती ,| पैश्यांचा खण खणात होता .|
बेगडी सारे चमकते ते ,| मुखवटयांचा ताटवा होता ....||
डोळे भिरभिरते सगळे ,| पाहण्यारांना सोस होता ..........|
विकण्यासाठी काय नव्हते ?| ,जो-तो चमचमता काजवा होता..||
भावना घेउनी मनातल्या ,| कुणी आलाच चुकून येथे ...|
कवडीची ना किमत त्याला |, दलालांचा तो कालवा होता ..||
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कविता ||- बाजार || -अरुण वि .देशपांडे -पुणे.
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