कविता - मनाची समजूत ...!
-अरुण वि.देशपांडे -पुणे .
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लोकांच्या गर्दीत चुकून एखादा चेहेरा
आपला कुणी आहे असे वाटू लागते
व्यवहारी इतका निघतो तो , की
भावनेला किमत नसते , हे पटू लागते ...।
का बरे असे वागत असतात आपलीच माणसे ?
मनाच्या आतली आहेत ,हे सत्य ना फारसे
शब्द्द आठावता त्यांचे ,किती खरे ते वाटले
कुठे हरवला भाव त्यातला ,मन आज शोधू लागते ..।
आणा- भाका , त्या शपथा आणिक , किती विश्वास होते
मर्जी फिरता आता त्यांची , लगेच तोंड फिरवले होते
बदलते रूप पाहुनी आज त्यांचे ,मन भोवन्डले होते..
मनाची समजूत घालण्या ,मित्रा शब्द सापडत नव्हते ...!
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कविता - मनाची समजूत ..!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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-अरुण वि.देशपांडे -पुणे .
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लोकांच्या गर्दीत चुकून एखादा चेहेरा
आपला कुणी आहे असे वाटू लागते
व्यवहारी इतका निघतो तो , की
भावनेला किमत नसते , हे पटू लागते ...।
का बरे असे वागत असतात आपलीच माणसे ?
मनाच्या आतली आहेत ,हे सत्य ना फारसे
शब्द्द आठावता त्यांचे ,किती खरे ते वाटले
कुठे हरवला भाव त्यातला ,मन आज शोधू लागते ..।
आणा- भाका , त्या शपथा आणिक , किती विश्वास होते
मर्जी फिरता आता त्यांची , लगेच तोंड फिरवले होते
बदलते रूप पाहुनी आज त्यांचे ,मन भोवन्डले होते..
मनाची समजूत घालण्या ,मित्रा शब्द सापडत नव्हते ...!
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कविता - मनाची समजूत ..!
-अरुण वि.देशपांडे - पुणे
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